google.com, pub-,8818566653219942, DIRECT, f08c47fec0942fa0 "स्वास्थ्य संबंधित ताजा जानकारी" 🪫The latest health updates expr:class='"loading" + data:blog.mobileClass'>

रविवार, 21 दिसंबर 2025

दृष्टि के सन्दर्भ में व्याख्या के पश्चात् रंग संवेदना को भी समझना उचित होगा: रंगसंवेदना (Colour Vision):

 दृष्टि के सन्दर्भ में व्याख्या के पश्चात् रंग संवेदना को भी समझना उचित होगा: रंगसंवेदना (Colour Vision):  

दृष्टि से सम्बन्धित रंग संवेदनाओं को रंगीन संवेदनाएँ (Chromatic Sensation) एवं रंगविहीन संवेदनाएँ (Achromatic Sensation) के रूप में विभाजित किया गया है ।


इन दोनों संवेदनाओं के अन्तर्गत रंगों की श्रेणी निम्नवत् है:


रंगीन संवेदनाएँ:


लाल, हरा, नीला व पीला, बैंगनी व नारंगी ।


रंगविहीन संवेदनाएँ:


काला, भूरा व सफेद ।


रंग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं:


(i) वर्ण (Hue):


प्रत्येक रंगीन उद्दीपक का कोई न कोई वर्ण अवश्य होता है । विभिन्न रंगों से सम्बन्धित छायाओं को वर्ण कहा जाता है ।


(2) चमक (Brightness):


दूसरी विशेषता रंग की चमक है, जो कि तरंग की ऊँचाई पर निर्भर करती है । किसी भी रंग की प्रकाश तरंग की ऊँचाई जितनी अधिक होगी उसकी चमक उतनी ही अधिक होगी । उदाहरण के लिए, लाल रंग की अधिक चमक यह बताती है, कि लाल रंग प्रकाश की तरंग ऊँचाई अपेक्षाकृत और रंगों के अधिक होती है 

सामान्य दृष्टि-दोष (Error of Reflection):

 सामान्य दृष्टि-दोष (Error of Reflection): 

आँखों में अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं । इनमें दृष्टि वैषम्य (Astigmatism), भेंगापन, मोतियाबिन्द आदि प्रमुख हैं । किन्तु अधिकांशत: दो नेत्र दोष व्यक्तियों में पाये जाते हैं, जिनमें एक निकट दृष्टि या मायोपिया (Myopia) और दूसरा दूर-दृष्टि होता है ।


मानव के नेत्र गोलक सामान्यत: जन्म के समय लगभग 17.5 मिमी. तथा वयस्कों में 20-21 मिमी. के होते हैं । नेत्र गोलक में घुसने वाली समस्त प्रकाश किरणें कार्निया लेंस आदि पर टकराकर रेटिना से पहले ही केन्द्रित हो जाती हैं, और फिर रेटिना पर पड़ती है ।


इस प्रकार सामान्य नेत्रों द्वारा हम 10 सेमी. से 50 सेमी दूर की वस्तुओं को साफ देख सकते हैं । किन्तु कभी-कभी नेत्र गोलक के कुछ छोटे होने पर या बड़े हो जाने पर लैस सिलियरी पेशियों की लचक कम हो जाने के कारण ही निकट दृष्टिदोष या दूर दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाते हैं ।


(1) दूर दृष्टि दोष:


इसके अन्तर्गत नेत्र गोलक के छोटे हो जाने से किरणों का केन्द्रीयकरण रेटिना से पीछे होता है, जिससे दूर की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, किन्तु निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नही देती हैं ।


इस दोष को मिटाने के लिए उत्तल लेंस (Convex) प्रयोग में लाया जाता है, जिससे किरणों की अभिबिन्दुकता बढ़ जाती है और उनका केन्द्रीयकरण रेटिना पर होता है । ये लेंस कॉर्निया द्वारा किरणों के नेत्र में प्रवेश होने से पहले ही उनको अभिबिन्दुक कर देते हैं ।


दूर दृष्टि-दोष के निम्न लक्षण (Symptoms) है:


(i) निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं ।


(ii) आखों से पढ़ते समय पानी बहने लगता है ।


(iii) आँखों की गुहा में तथा सिर में दर्द रहने लगता है ।


(iv) पढ़ने-लिखने, सिलाई तथा बीनने आदि बारीक कामों में अत्यधिक दिक्कतें होती हैं ।


(v) प्राय: पुस्तक को बहुत पास लाकर पढ़ना पड़ता है ।


(2) निकट दृष्टिदोष या मायोपिया:


निकट दृष्टि-दोष में प्राय: नेत्र गोलक के बड़े हो जाने पर या कार्निया अथवा लेंस के अधिक मोटा हो जाने के कारण रेटिना तथा केन्द्रित बिन्दु के बीच की दूरी बढ़ जाती है । अत: निकट दृष्टि दोष में पास की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, किन्तु दूर की वस्तुएँ प्राय: धुँधली दिखाई देती हैं ।


अवतल लेंस के द्वारा इस दोष को दूर किया जा सकता है । यह दोष प्राय: कम उम्र के बच्चों में भी हो जाता है । वैसे 18 -20 वर्ष की आयु के बच्चों की अस्त्रों में प्राय: यह दोष पाया जाता है । 

दृष्टि तीक्षाता (Visual Activity):

 दृष्टि तीक्षाता (Visual Activity): 

आँख के आगे के हिस्से की अपेक्षा पीछे के हिस्से की ओर दृष्टि तीक्ष्णता अधिक होती है । इस पर प्रकाश का प्रभाव भी पड़ता है । प्रकाश की उपस्थिति में एक सीमा तक दृष्टि तीक्ष्णता बढ़ जाती है । अत: किसी वस्तु तथा उसकी पृष्ठभूमि पर दृष्टि तीक्ष्णता का प्रभाव होता है । पृष्ठभूमि का तीव्र प्रकाश भी दृष्टि तीक्ष्माता के लिए एक कारण हो सकता है । भिन्न-भिन्न रंगों की तीक्ष्णता में भी भिन्नता होती है ।

नेत्रों की देखने की कार्य-विधि (The Mechanism of Sight):


नेत्रों के देखने की कार्य-विधि पूर्णत: एक कैमरे के समान कार्य करती है, जिस प्रकार कैमरे में शटर हटाकर लेंस पर आँख लगाकर देखा जाता है, ठीक उसी प्रकार पलके खो के लिए शटर का कार्य करती हैं । प्रकाश के प्रवेश के लिए कॉर्निया (Cornea) एक खिड़की के रूप में रहता है ।


आइरिस (Iris) का पर्दा भीतर प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को कंट्रोल करता है । लेंस से प्रकाश की किरणें फोकस करती हैं । मध्य पटल फोटो कैमरे के प्रकाशरोधक बॉक्स की काली दीवार का कार्य करता है, जिससे अक्षिगोलक के अभ्यान्तर में एक अन्धकारमय कक्ष तैयार होता है, और प्रकाश के प्रति संवेदनशील फोटोग्राफी प्लेट का कार्य ‘दृष्टि पटल’ करती हैं ।


नेत्रों का समायोजन (Accommodation of Eyes):


हमारी आँख दूर या पास की वस्तु को देखने के लिए लैस की मोटाई में परिवर्तन करती रहती है । आँख में दूरी परिवर्तन करने को जिससे वस्तु साफ दिखाई पड़े, समायोजन (Accommodation) कहलाता है । आराम की स्थिति में जब शरीर शिथिल होता है, तो इस स्थिति में आँख का लैस कुछ चपटा-सा बना रहता है ।


यह चपटा लैस दूर की वस्तुओं को देखने के लिए उपयुक्त रहता है, किन्तु जब पास की वस्तुओं को देखना होता है, तो सिलियरी बॉडी की पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं, जिससे लचीला लेंस अधिक मोटा हो जाता है । मानव शरीर के नेत्र सिर पर आगे की ओर पास-पास स्थित होते हैं, ताकि दोनों आँख एक ही वस्तु पर केन्द्रित हो सकें । इसे द्विनेत्रीय दर्शिता (Binocular Vision) कहते हैं । 

शलाका एवं शकु में भेद निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है:

 शलाका एवं शकु में भेद निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है: 

(1) संरचनात्मक भिन्नता (Structural Impression):


शंकु आकार में छोटे एवं मोटी संरचना वाले तत्व होते हैं, जबकि दण्ड देखने में पतले एवं लम्बी संरचना वाले होते हैं । दण्डों में अन्धकार के समय एकत्र होने वाला एक पदार्थ क्रियाशील रहता है । इस पदार्थ को दृष्टि धूमिल (Visual Purple) कहते हैं । शंकु दण्डों की तरह एकत्र न होकर स्वतन्त्र होते हैं ।


(2) क्रियात्मक भिन्नता (Functional Difference):


शंकु अधिक प्रकाश में क्रियाशील होते हैं, जबकि दण्ड कम प्रकाश में । जिन व्यक्तियों के दण्ड शक्तिहीन हो जाते हैं, उन्हें रात्रि में दिखायी नहीं पड़ता क्योंकि ये मन्द प्रकाश तरंगों से उत्तेजित एवं क्रियाशील हो जाते हैं ।


(3) वितरणात्मक भिन्नता (Distributional Difference):


मनुष्य की आँख में शंकुओं की अपेक्षा दण्ड बहुत अधिक संख्या में पाये जाते हैं । जहाँ शंकु अधिक पाये जाते हैं, उस स्थान को पति बिन्दु (Yellow Spot) कहते हैं । इसी के बीच में दबे स्थान को फोबिया या दृष्टि केन्द्र कहते हैं । जहाँ पर किसी वस्तु की आकृति अत्यन्त स्पष्ट होती है, उस स्थान को स्पष्टतम दृष्टि बिन्दु (Clearest Vision Point) भी कहा जाता है ।


अन्त: पटल का वह स्थान है, जहाँ से दृष्टि स्नायु मस्तिष्क की ओर जाते हैं, ध्वजा बिन्दु कहलाता है । उस स्थान पर दृष्टि संवेदना का एक भी सग्राहक न होने के कारण मनुष्य को कुछ भी दिखाई नहीं देता ।


दृष्टि अनुकूलन (Visual Adaptation):


दृष्टि के क्षेत्र में अनुकूलन से अभिप्राय फोटो रिसेप्टर्स (Photo Preceptors) की रिएक्टीविटी (Reactivity) एवं पुतली (Pupils) के आकार में परिवर्तन होने के कारण दण्ड (Rods) के उद्दीप्त होने तथा क्रियाशील होने में लगने वाले समय से है ।


हेच (Hecht) ने इस सम्बन्ध में प्रयोग के आधार पर स्पष्ट किया कि अनुकूलन पर प्रकाश की मात्रा के अतिरिक्त रेटिना (Retina) के उद्दीप्त क्षेत्र तथा आकार का भी प्रभाव पडता है । हैरीमैन (Harriman) के अनुसार अन्य ज्ञानेन्द्रियों में भी इस प्रकार का अनुकूलन करने की प्रभावी प्रक्रिया निहित होती है 

पानी है हमारा शरीर

 पानी है हमारा शरीर 

जीभ को स्‍वाद की अनुभूति


मानव जीभ पर 9000 तन्तु होते हैं जिससे वह मुख्‍य स्वादों को तुरंत पहचान जाती है। जीभ की नोक से नमकीन तथा मीठे को, पिछले हिस्से से तीखे या चरपरे, खट्टे को जीभ के दोनों किनारों से तथा मिले-जुले स्वाद को जीभ के बीच वाले हिस्से से महसूस किया जाता है। पर जब तक मुंह की लार खाने में नहीं मिल जाती तब तक स्वाद की अनुभूति नहीं होती।



आंखों जैसा नहीं कोई कैमरा


आंख की रेटिना में करीब 125 मिलियन रॉड और 7 मिलियन कोन होते हैं। रॉड से छाया और कम रोशनी में देखने में मदद मिलती है जबकि कोन तेज रोशनी में देखने और रंगों की पहचान करने में सहायक होते हैं। और यह भी तथ्‍य है कि हम आंखों से नहीं बल्कि अपने दिमाग से देखते हैं। आंखें वास्‍तव में कैमरे का काम करती हैं।




आकार के बारे में तथ्‍य


यह तथ्‍य भी चौंका देने वाला है क्‍या आप जानते हैं कि कोहनी से निचले भाग से कलाई तक के भाग जितने ही आपके पैर होते हे। इसी प्रकार आपके अंगूठे की लम्‍बाई आपकी नाक की लम्‍बाई जितनी होती है और होठों की लम्‍बाई आपकी पहली उंगली जितनी होती है।



ब्लड सर्कुलेशन बढ़ने से बेहतर होती है इम्यूनिटी


ब्लड यानी रक्त मानव शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। आपके पूरे शरीर में न्यूट्रिएंट्स, इलेक्ट्रोलाइट्स, हार्मोन्स, हीट और ऑक्सीजन पहुंचाने का काम रक्त ही करता है। आपके शरीर के विभिन्न हिस्सों को स्वस्थ्य रखने और इम्यूनिटी सिस्टम यानि रोग-प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करने का काम भी ब्लड ही करता है। लेकिन आपको पता है ब्लड के सही सर्कुलेशन के लिए आपके ब्लड प्रेशर, हार्ट रेट, ब्लड शुगर, ब्लड टाइप और कोलेस्ट्रॉल का नियंत्रण में होना अत्यधिक जरूरी है। आइये जानते हैं वो कौन से 8 तरीके हैं जिनसे आपका ब्लड सर्कुलेशन बढ़ता है इम्यूनिटी सिस्टम बेहतर होता है।


साइक्लिंग


साइक्लिंग ब्लड सर्कुलेशन बढ़ाता है। रोजाना साइक्लिंग करने से आपके पैरों के मसल्स शेप में आ जाएंगे। जो लोग बहुत ही कम एक्सरसाइज करते हैं उनके लिए साइक्लिंग बेहतर है। जब आपका ब्लड सर्कुलेशन बेहतर हो जाएगा तो आपकी इम्यूनिटी पावर अपने आप ही बढ़ जाएगी।

यह सेल है अनोखी

 यह सेल है अनोखी  

मोटर न्‍यूरोन्‍स मनुष्‍य के शरीर में सबसे लंबी सेल होती है। यह रीढ़ की हड्डी से शुरू होकर पैर के टखने तक जाती है और जिसकी लंबाई 4.5 फुट (1.37 मीटर) तक हो सकती है।



जबड़ा होता है सबसे तगड़ा


किसी भी प्रकार की दुर्घटना होने पर हड्डियां ही सबसे अधिक टूटती हैं, परन्‍तु जबड़े की हड्डी इतनी मजबूत होती है कि उस पर कोई असर नहीं पड़ता है। यह लगभग 280 किलो वजन भी सहन कर सकती है।



भोजन नहीं नींद जरूरी


हमेशा से माना जाता है कि व्‍यक्ति खाएं बिना ज्‍यादा समय तक जिन्‍दा नहीं रह सकता। लेकिन इस बारे में यह तथ्‍य है कि व्यक्ति भोजन के बिना तो कई हफ्ते गुजार सकता है, लेकिन बिना पानी और नींद के एक सप्ताह निकालना भी मुश्किल हो जाता है।



सब जला देता है ये तेजाब


पेट में बनने वाला एसिड इतना तेज होता है कि वह रेजर ब्लेड को भी गला सकता है। इसीलिए पेट के अन्दर का अस्तर हर तीसरे-चौथे दिन बदल जाता है।

नाखूनों की बात

 नाखूनों की बात  

महिलाओं के नाखूनों की तुलना में पुरूषों के नाखून तेज गति से बढ़ते हैं। ऐसा हार्मोंस के कारण होता है। साथ ही नाखून के बढ़ने की गति गर्मियों में अधिक तेज होती है क्योंकि शरीर द्वारा धूप का इस्तेमाल कर विटामिन डी बनाने से बढत तेज हो जाती है।


इतना बुरा नहीं कान का मैल


कान का मैल हमारे रक्षा तंत्र के लिए बहुत जरूरी होता है। यह कानों को कई प्रकार के बैक्‍टीरिया से बचाती है। हालांकि कुछ लोगों को यह बिल्‍कुल भी पसंद नहीं होती पर यह हमारे शरीर के लिए फायदेमंद ही होती है।



किडनियों के आकार में होता है अंतर


मनुष्‍य का दाई किडनी, बाएं किडनी से बड़ी होती है। ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि बाएं किडनी के पास दिल होता है।

महिलाओं के नाखूनों की तुलना में पुरूषों के नाखून तेज गति से बढ़ते हैं। ऐसा हार्मोंस के कारण होता है। साथ ही नाखून के बढ़ने की गति गर्मियों में अधिक तेज होती है क्योंकि शरीर द्वारा धूप का इस्तेमाल कर विटामिन डी बनाने से बढत तेज हो जाती है।


इतना बुरा नहीं कान का मैल


कान का मैल हमारे रक्षा तंत्र के लिए बहुत जरूरी होता है। यह कानों को कई प्रकार के बैक्‍टीरिया से बचाती है। हालांकि कुछ लोगों को यह बिल्‍कुल भी पसंद नहीं होती पर यह हमारे शरीर के लिए फायदेमंद ही होती है।



किडनियों के आकार में होता है अंतर


मनुष्‍य का दाई किडनी, बाएं किडनी से बड़ी होती है। ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि बाएं किडनी के पास दिल होता है।

मानव शरीर से जुड़े तथ्‍य

 मानव शरीर से जुड़े तथ्‍य  

इनसानी शरीर दुनिया की सबसे पेचीदा मशीन है। हमारे शरीर के बारे में कई ऐसी बातें हैं, जिनसे हम शायद ही वाकिफ हों। इस शरीर से जुड़े कई ऐसे तथ्‍य हैं, जो वाकई हैरान करने वाले हैं। आइए इस स्‍लाइड शो के जरिये इनसानी शरीर के बारे में कुछ रोचक बातें जानते हैं।



आंखों की कहानी


आंखों की खूबसूरती की कसीदे तो आपने बहुत सुने होंगे, लेकिन क्‍या आप जानते हैं कि हमारे यह हमारे शरीर का एकमात्र ऐसा अंग है जिसका आकार कभी नहीं बदलता। जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक इनसान की आंख का आकार एक समान रहता है। हालांकि, समय के साथ-साथ इसके लैंस का आकार जरूर मोटा होता जाता है। हां एक और बात हमारे कान और नाक मृत्‍यु पर्यंत बढ़ते रहते हैं।



दिमाग की पेचीदगी


मनुष्यों में मस्तिष्क को पूरी तरह से विकसित होने में करीब 25 वर्ष लगते हैं ज‍बकि फेफड़ों को पूरी तरह से विकसित होने में 18 से 22 वर्ष तक का समय लगता है।

मूत्र त्याग:

 मूत्र त्याग: 

यह एक इन्वोलन्टरी रिफलक्स है जो वोलन्टरी कन्ट्रोल से जुड़ा है । जब मूत्राशय मूत्र से भरना शुरू होता है तो पहले इसका दाब अधिक हो जाता है तो इसकी दीवार में स्थित स्ट्रेच रिसेप्टर स्टीमुलेट हो जाते हैं । यहां से जाने वाली तरंगें पैरासिम्पैथेटिक मिक्चयूरेटिंग रिफलेक्स सेन्टर को उत्तेजित करते हैं जिससे मूत्राशय का रिफलेक्स कान्ट्रेक्सन व स्फिन्कन्टरों का रिलेक्सेसन हो जाता है व मूत्र बाहर निकाल दिया जाता है ।


यहां तक कोई कान्शियस सेन्सेशन नहीं होता है पर जब मूत्राशय में मूत्र की मात्रा 500 मिली॰ हो जाता है तो यह दुखदायी हो जाता है । इसके अलावा सेरेब्रल कार्टेक्स का इक्सटर्नल स्फिन्कटर के ऊपर वोलेन्टरी कन्ट्रोल होता है ।


स्पानल कार्ड या सेव्रव्रल इन्जरी होने पर यह ऐक्षिक कन्ट्रोल समाप्त हो जाता है तथा इन्कान्टिनेन्स (Incontinence) हो जाती है । कुछ स्थितियों जैसे उदर की शल्य क्रिया के पश्चात रोगी मूत्राशय में अधिक मूत्र होने पर भी आ त्याग नहीं कर पाता है 

रक्त प्रवाह:

 रक्त प्रवाह: 

इन्टरनल इलायक धमनी की बाचें रक्त पहुंचाती हैं तथा शिरायें इन्टरनल इलायक शिराओं में खुलती हें ।


तन्त्रिका तन्त्र:


सिम्पैथेटिक व पैरासिम्पैथेटिक दोनों तन्तु वाडी (Detrusor) व इन्टरनल थूरिथ्रल सिफन्कटर को सप्लाई करते हैं ।


कार्य:


मुख्य कार्य मूत्र का इकट्‌ठा करना, व शरीर से बाहर निकालना है ।


यूरिथ्रा:


यह मूत्राशय के निचले भाग से शुरू होकर शरीर से बाहर खुलने वाली नली है । यह पुरूषों में शिश्न के अगले सिरे पर तथा महिलाओं मे वेजानल छिद्र के आगे एक छोटे छिद्र के रूप में खुलती है । यूरिथ्रा में दो स्किन्कटर इन्टरनल व इक्सर्टनल स्फिन्क्टर होते हैं ।


पुरुषों में थुरिथ्रा लगभग 20 सेमी॰ लम्बी होती है तथा इसको प्रोस्टेटिक, मेम्ब्रेनस तथा पेनाइल यूरिथ्रा में बांटा जाता है, जबकि महिलाओं में यह केवल 4 सेमी॰ लम्बी होती है । यह इन्टरनल यूरिथ्रल छिद्र से शुरू होकर नीचे तथा आगे की ओर बढ्‌कर वेजाइना की अगली दीवार के साथ वेजाइना के आगे व क्लाइटोरस के 2 सेमी॰ नीचे एक छिद्र के रूप में शरीर से बाहर खुलती है । इस छिद्र को यूरिनरी मीट्‌स कहते हैं । यूरिथ्रा म्यूकस मेम्ब्रेन से ढकी होती है । 

रेनिन का निर्माण:

 रेनिन का निर्माण: 

रेनिन का स्राव सोडियम की मात्रा या रक्त चाप कम होने पर होता है । रेनिन रक्त में उपस्थित एन्जियोटेन्सिनोजन को एन्जिटेन्सिन-1 में, जो एन्जियोटेन्सिन-2 में परिवर्तित होकर एड्रिनल कार्टेक्स से एल्डोस्टेरान के स्राव को बढ़ाता है । एल्डोस्टेरान गुर्दे में सोडियम के अवशोषण को बढ़ाता है । जिससे रक्त का आयतन और रक्त दाब बढ़ता है ।


5. गुर्दे इरेथ्रोपोयटिन (Erythropoetin) का निर्माण करते हैं जो अस्थिमज्जा को लाल रक्त कणिकाओं के अधिक निर्माण हेतु उत्तेजित करता है । 



यूरेटर: 



गुर्दी द्वारा बना हुआ मूत्र, मूत्राशय तक यूरेटरों द्वारा पहुंचता है । यह लगभग 25 से॰मी॰ लम्बी नलियां होती हैं जो गुर्दे की पेल्विस से मूत्राशय के पिछले भाग तक फैली होती हैं । इसकी दीवार तीन पतों वाली होती है ।


1. आन्तरिक म्यूकस सतह जो ट्रान्जीसनल इपीथीलियम से बनी होती है ।


2. मध्य की मस्कुलर सतह, जो बाहरी सरकुलर तथा अन्दर लन्गीट्रयूडिनल पेशियों से बनी होती है ।


3. बाहरी फाइब्रस सतह, जो बाहरी फाइब्रस रीनल कैप्सूल से मिल जाती है ।


मूत्राशय: 


यह खिंच सकने वाली मूत्र को एकत्रित करने वाली थैली है जो 200-300 मिली॰ मूत्र इकट्‌ठा कर सकती है । यह सिम्फाइसिस प्यूविस के ठीक पीछे स्थित होती है । इसकी अगली सतह पेराइटल पेरीटोनियम से ढकी रहती है (चित्र 3.50) । पुरुषों में इसके पीछे रेक्टम, वासडिफरेन्स और सेमिनल वेसिकिल स्थित होते है, तथा मूत्राशय की गर्दन पौस्टेट ग्रन्थि पर स्थित होता है

गुर्दे

 गुर्दे: 

बारहवीं थोरेसिक वर्टिब्रा से लेकर तृतीय लम्बर वर्टिब्रा के लेविल पर वर्टिब्रल कालम के दोनों ओर दोनों गुर्दे स्थित होते हैं । प्रत्येक गुर्दे का भार लगभग 150 ग्राम होता है तथा आकार सेम के आकार की 10-12 से॰मी॰ लम्बी व 5-6 से॰मी॰ चौडी होती है ।


कार्यविधि:


गुर्दे की बेसिक फन्कशनल यूनिट (Basic functional units) नेफ्रान (Nephron) होती है जो प्रत्येक गुर्दे में लगभग 10 लाख होते हैं । प्रत्येक नेफ्रान में कैपलरियों का एक गुच्छा होता है जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं । जो नली के बन्द सिरे की ओर स्थित रहकर मालपिजियन कारपसल (Mal-pighian corpuscle) बनाती है जो नेफ़्रान का पहला भाग है (चित्र 3.46) । नेफ्रान के निम्न भागों को चित्र 3.46 में दर्शाया गया है । 




गुर्दे और सुप्रारीनल एडीपोस कैप्सूल से ढके रहते हैं । दांया गुर्दा मध्य की ओर डियोडिनम तथा नीचे दांये कोलोनिक (Colonicflexure) फ्लेक्सर से संबंधित होता है । बांया गुर्दा बांये कोलोनिक फ्लेक्सर और पैन्क्रियाज की टेल से सम्बन्धित होता है । (चित्र 3.46) प्रत्येक गुर्दे के एन्टीरियर और पोस्टीरियर सतहें, मीडियल व लैट्रल (Lateral) मार्जिनें (margin) तथा ऊपरी व निचले सिरे (poles) होते हैं ।


मीडियल साइड पर दोनों गुर्दी में दोनों सिरों के मध्य रीनल हाइलम होता है जिससे रीनल धमनी अन्दर आती है व यूरेटर और शिरा बाहर जाती है । यूरिनरी चैनल का ऊपरी सिरा रीनल पेल्विस कहलाता है जिसके ऊपर व पीछे से रीनल वेसल जाती हैं । 



रीनल पेल्विस का ऊपरी भाग दो या अधिक मेजर कैलेक्सों के मिलने से बनता है तथा निचला भाग यूरेटर में खुलता है । वास्तव में रीनल पेल्विस को यूरेटर का ऊपरी फैला हुआ भाग माना जा सकता है । गुर्दे को काटने पर इसके दो भाग बाहरी कार्टेक्स तथा अन्दर का मेडूला दिखायी पड़ता है । कार्टेक्स में ग्लोमेरूलाई व कन्वूलेटेड ट्‌यूव्यूल स्थित होते हैं, जबकि मेडूला में कलेक्टिंग डक्ट होती हैं । मेडूला में ही रीनल पिरैमिड भी स्थित होते हैं जिनका आधार कार्टेक्स की तरफ तथा पतला पैपिला (Papilla) वाला भाग माइनर कैलक्स पर स्थित होता है । 

ह्रदय धड़कन Heart Beats

 ह्रदय धड़कन Heart Beats 

शरीर में रक्त-संचार की प्रक्रिया हृदय की पंपिंग या धड़कन द्वारा संपन्न होती है। प्रत्येक धड़कन की तीन अवस्थाएं होती हैं: दो अलिंदों का संकुचन (Contraction of the two Atrium), दो निलयों का संकुचन (Contraction of two Ventricles) तथा विश्राम काल (Rest period)|


हृदय की धड़कन को हार्ट बीट कहते हैं। एक बार की धड़कन में एक कार्डिअक चक्र (Cardiac cycle) पूरा हो जाता है। वक्ष पर बाईं ओर कान लगाकर या स्टेथोस्कोप (Stethoscope) रखकर हृदय की धड़कन सुनी जा सकती है। नवजात शिशु के हृदय की धड़कन प्रति मिनट लगभग 140 बार होती है। दस वर्ष के बच्चे का हृदय एक मिनट में 90 बार धड़कता है। पुरुष के हृदय की धड़कन 70-72 बार प्रति मिनट होती है। स्त्री का हृदय एक मिनट में 78-82 बार धड़कता है। व्यायाम करते समय हृदय की धड़कन प्रति मिनट 140 से 180 बार तक हो जाती है। हृदय की धड़कन अपने आप ही होती रहती है। इस पर मस्तिष्क का कोई नियंत्रण नहीं होता। हृदय की धड़कन का नियंत्रण पेस मेकर करता है।


ह्रदय ध्वनि Heart Sound


    हृदय ध्वनियों में लब (Lubb) नामक प्रथम ध्वनि तब उत्पन्न होती है, जब आलिन्द तथा निलय के बीच के कपाट या वाल्व बन्द होते हैं तथा इसी क्षण निलयों (Pentricles) का संकुचन होता है।

    हृदय ध्वनियों में डब (Dubb) नामक दूसरी ध्वनि तब उत्पन्न होती है, जब अर्द्धचन्द्राकार कपाट बन्द होते हैं। ये वे वाल्व हैं, जो निलय तथा महाधमनियों के बीच होते हैं। कपाट व वाल्व रूधिर को विपरीत दिशा में बहने से रोकते हैं।


    RBCs की अधिकता (सामान्य से ज्यादा) पोलीसाइथीमिया (Polycythemia)

    RBCs की कमी (सामान्य से कम) रक्ताल्पता (Anaemia)

    WBCs की अधिकता (सामान्य से अधिक) ल्यूकमिया (Leukemia)

    WBCs की कमी (सामान्य से कम) ल्यूकोपीनिया (Leukopenia)


हृदय रोग Heart Diseases


    हृदय में कपाटीय रोग, वाल्व के ठीक प्रकार से कार्य करने में असमर्थ होने से होता है। इसमें रूधिर विपरीत दिशा में जाने लगता है।

    एन्जाइना हृदय रोग, भित्ति को ठीक तरीको से रूधिर प्राप्त नहीं होने के कारण होता है। यह कोरोनरी धमनी के संकुचन या उसमें थक्का जमने से होता है।

    पेरिकार्डियोटिस (Pericardiotis): मानव हृदय, एक आवरण से घिरा रहता है। इस आवरण की परतों में एक द्रव भरा रहता है जिसे पेरिकार्डियल द्रव कहते हैं। इस रोग में जीवाणु के संक्रमण के कारण हृदय आवरण में सूजन आ जाती है।

    रूमैटीक हृदय रोग जीवाणु संक्रमण के कारण हृदय के कपाट ठीक से कार्य नहीं कर पाते और हृदय की पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं।