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रविवार, 21 दिसंबर 2025

दृष्टि के सन्दर्भ में व्याख्या के पश्चात् रंग संवेदना को भी समझना उचित होगा: रंगसंवेदना (Colour Vision):

 दृष्टि के सन्दर्भ में व्याख्या के पश्चात् रंग संवेदना को भी समझना उचित होगा: रंगसंवेदना (Colour Vision):  

दृष्टि से सम्बन्धित रंग संवेदनाओं को रंगीन संवेदनाएँ (Chromatic Sensation) एवं रंगविहीन संवेदनाएँ (Achromatic Sensation) के रूप में विभाजित किया गया है ।


इन दोनों संवेदनाओं के अन्तर्गत रंगों की श्रेणी निम्नवत् है:


रंगीन संवेदनाएँ:


लाल, हरा, नीला व पीला, बैंगनी व नारंगी ।


रंगविहीन संवेदनाएँ:


काला, भूरा व सफेद ।


रंग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं:


(i) वर्ण (Hue):


प्रत्येक रंगीन उद्दीपक का कोई न कोई वर्ण अवश्य होता है । विभिन्न रंगों से सम्बन्धित छायाओं को वर्ण कहा जाता है ।


(2) चमक (Brightness):


दूसरी विशेषता रंग की चमक है, जो कि तरंग की ऊँचाई पर निर्भर करती है । किसी भी रंग की प्रकाश तरंग की ऊँचाई जितनी अधिक होगी उसकी चमक उतनी ही अधिक होगी । उदाहरण के लिए, लाल रंग की अधिक चमक यह बताती है, कि लाल रंग प्रकाश की तरंग ऊँचाई अपेक्षाकृत और रंगों के अधिक होती है 

सामान्य दृष्टि-दोष (Error of Reflection):

 सामान्य दृष्टि-दोष (Error of Reflection): 

आँखों में अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं । इनमें दृष्टि वैषम्य (Astigmatism), भेंगापन, मोतियाबिन्द आदि प्रमुख हैं । किन्तु अधिकांशत: दो नेत्र दोष व्यक्तियों में पाये जाते हैं, जिनमें एक निकट दृष्टि या मायोपिया (Myopia) और दूसरा दूर-दृष्टि होता है ।


मानव के नेत्र गोलक सामान्यत: जन्म के समय लगभग 17.5 मिमी. तथा वयस्कों में 20-21 मिमी. के होते हैं । नेत्र गोलक में घुसने वाली समस्त प्रकाश किरणें कार्निया लेंस आदि पर टकराकर रेटिना से पहले ही केन्द्रित हो जाती हैं, और फिर रेटिना पर पड़ती है ।


इस प्रकार सामान्य नेत्रों द्वारा हम 10 सेमी. से 50 सेमी दूर की वस्तुओं को साफ देख सकते हैं । किन्तु कभी-कभी नेत्र गोलक के कुछ छोटे होने पर या बड़े हो जाने पर लैस सिलियरी पेशियों की लचक कम हो जाने के कारण ही निकट दृष्टिदोष या दूर दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाते हैं ।


(1) दूर दृष्टि दोष:


इसके अन्तर्गत नेत्र गोलक के छोटे हो जाने से किरणों का केन्द्रीयकरण रेटिना से पीछे होता है, जिससे दूर की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, किन्तु निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नही देती हैं ।


इस दोष को मिटाने के लिए उत्तल लेंस (Convex) प्रयोग में लाया जाता है, जिससे किरणों की अभिबिन्दुकता बढ़ जाती है और उनका केन्द्रीयकरण रेटिना पर होता है । ये लेंस कॉर्निया द्वारा किरणों के नेत्र में प्रवेश होने से पहले ही उनको अभिबिन्दुक कर देते हैं ।


दूर दृष्टि-दोष के निम्न लक्षण (Symptoms) है:


(i) निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं ।


(ii) आखों से पढ़ते समय पानी बहने लगता है ।


(iii) आँखों की गुहा में तथा सिर में दर्द रहने लगता है ।


(iv) पढ़ने-लिखने, सिलाई तथा बीनने आदि बारीक कामों में अत्यधिक दिक्कतें होती हैं ।


(v) प्राय: पुस्तक को बहुत पास लाकर पढ़ना पड़ता है ।


(2) निकट दृष्टिदोष या मायोपिया:


निकट दृष्टि-दोष में प्राय: नेत्र गोलक के बड़े हो जाने पर या कार्निया अथवा लेंस के अधिक मोटा हो जाने के कारण रेटिना तथा केन्द्रित बिन्दु के बीच की दूरी बढ़ जाती है । अत: निकट दृष्टि दोष में पास की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, किन्तु दूर की वस्तुएँ प्राय: धुँधली दिखाई देती हैं ।


अवतल लेंस के द्वारा इस दोष को दूर किया जा सकता है । यह दोष प्राय: कम उम्र के बच्चों में भी हो जाता है । वैसे 18 -20 वर्ष की आयु के बच्चों की अस्त्रों में प्राय: यह दोष पाया जाता है । 

दृष्टि तीक्षाता (Visual Activity):

 दृष्टि तीक्षाता (Visual Activity): 

आँख के आगे के हिस्से की अपेक्षा पीछे के हिस्से की ओर दृष्टि तीक्ष्णता अधिक होती है । इस पर प्रकाश का प्रभाव भी पड़ता है । प्रकाश की उपस्थिति में एक सीमा तक दृष्टि तीक्ष्णता बढ़ जाती है । अत: किसी वस्तु तथा उसकी पृष्ठभूमि पर दृष्टि तीक्ष्णता का प्रभाव होता है । पृष्ठभूमि का तीव्र प्रकाश भी दृष्टि तीक्ष्माता के लिए एक कारण हो सकता है । भिन्न-भिन्न रंगों की तीक्ष्णता में भी भिन्नता होती है ।

नेत्रों की देखने की कार्य-विधि (The Mechanism of Sight):


नेत्रों के देखने की कार्य-विधि पूर्णत: एक कैमरे के समान कार्य करती है, जिस प्रकार कैमरे में शटर हटाकर लेंस पर आँख लगाकर देखा जाता है, ठीक उसी प्रकार पलके खो के लिए शटर का कार्य करती हैं । प्रकाश के प्रवेश के लिए कॉर्निया (Cornea) एक खिड़की के रूप में रहता है ।


आइरिस (Iris) का पर्दा भीतर प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को कंट्रोल करता है । लेंस से प्रकाश की किरणें फोकस करती हैं । मध्य पटल फोटो कैमरे के प्रकाशरोधक बॉक्स की काली दीवार का कार्य करता है, जिससे अक्षिगोलक के अभ्यान्तर में एक अन्धकारमय कक्ष तैयार होता है, और प्रकाश के प्रति संवेदनशील फोटोग्राफी प्लेट का कार्य ‘दृष्टि पटल’ करती हैं ।


नेत्रों का समायोजन (Accommodation of Eyes):


हमारी आँख दूर या पास की वस्तु को देखने के लिए लैस की मोटाई में परिवर्तन करती रहती है । आँख में दूरी परिवर्तन करने को जिससे वस्तु साफ दिखाई पड़े, समायोजन (Accommodation) कहलाता है । आराम की स्थिति में जब शरीर शिथिल होता है, तो इस स्थिति में आँख का लैस कुछ चपटा-सा बना रहता है ।


यह चपटा लैस दूर की वस्तुओं को देखने के लिए उपयुक्त रहता है, किन्तु जब पास की वस्तुओं को देखना होता है, तो सिलियरी बॉडी की पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं, जिससे लचीला लेंस अधिक मोटा हो जाता है । मानव शरीर के नेत्र सिर पर आगे की ओर पास-पास स्थित होते हैं, ताकि दोनों आँख एक ही वस्तु पर केन्द्रित हो सकें । इसे द्विनेत्रीय दर्शिता (Binocular Vision) कहते हैं । 

शलाका एवं शकु में भेद निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है:

 शलाका एवं शकु में भेद निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है: 

(1) संरचनात्मक भिन्नता (Structural Impression):


शंकु आकार में छोटे एवं मोटी संरचना वाले तत्व होते हैं, जबकि दण्ड देखने में पतले एवं लम्बी संरचना वाले होते हैं । दण्डों में अन्धकार के समय एकत्र होने वाला एक पदार्थ क्रियाशील रहता है । इस पदार्थ को दृष्टि धूमिल (Visual Purple) कहते हैं । शंकु दण्डों की तरह एकत्र न होकर स्वतन्त्र होते हैं ।


(2) क्रियात्मक भिन्नता (Functional Difference):


शंकु अधिक प्रकाश में क्रियाशील होते हैं, जबकि दण्ड कम प्रकाश में । जिन व्यक्तियों के दण्ड शक्तिहीन हो जाते हैं, उन्हें रात्रि में दिखायी नहीं पड़ता क्योंकि ये मन्द प्रकाश तरंगों से उत्तेजित एवं क्रियाशील हो जाते हैं ।


(3) वितरणात्मक भिन्नता (Distributional Difference):


मनुष्य की आँख में शंकुओं की अपेक्षा दण्ड बहुत अधिक संख्या में पाये जाते हैं । जहाँ शंकु अधिक पाये जाते हैं, उस स्थान को पति बिन्दु (Yellow Spot) कहते हैं । इसी के बीच में दबे स्थान को फोबिया या दृष्टि केन्द्र कहते हैं । जहाँ पर किसी वस्तु की आकृति अत्यन्त स्पष्ट होती है, उस स्थान को स्पष्टतम दृष्टि बिन्दु (Clearest Vision Point) भी कहा जाता है ।


अन्त: पटल का वह स्थान है, जहाँ से दृष्टि स्नायु मस्तिष्क की ओर जाते हैं, ध्वजा बिन्दु कहलाता है । उस स्थान पर दृष्टि संवेदना का एक भी सग्राहक न होने के कारण मनुष्य को कुछ भी दिखाई नहीं देता ।


दृष्टि अनुकूलन (Visual Adaptation):


दृष्टि के क्षेत्र में अनुकूलन से अभिप्राय फोटो रिसेप्टर्स (Photo Preceptors) की रिएक्टीविटी (Reactivity) एवं पुतली (Pupils) के आकार में परिवर्तन होने के कारण दण्ड (Rods) के उद्दीप्त होने तथा क्रियाशील होने में लगने वाले समय से है ।


हेच (Hecht) ने इस सम्बन्ध में प्रयोग के आधार पर स्पष्ट किया कि अनुकूलन पर प्रकाश की मात्रा के अतिरिक्त रेटिना (Retina) के उद्दीप्त क्षेत्र तथा आकार का भी प्रभाव पडता है । हैरीमैन (Harriman) के अनुसार अन्य ज्ञानेन्द्रियों में भी इस प्रकार का अनुकूलन करने की प्रभावी प्रक्रिया निहित होती है 

पानी है हमारा शरीर

 पानी है हमारा शरीर 

जीभ को स्‍वाद की अनुभूति


मानव जीभ पर 9000 तन्तु होते हैं जिससे वह मुख्‍य स्वादों को तुरंत पहचान जाती है। जीभ की नोक से नमकीन तथा मीठे को, पिछले हिस्से से तीखे या चरपरे, खट्टे को जीभ के दोनों किनारों से तथा मिले-जुले स्वाद को जीभ के बीच वाले हिस्से से महसूस किया जाता है। पर जब तक मुंह की लार खाने में नहीं मिल जाती तब तक स्वाद की अनुभूति नहीं होती।



आंखों जैसा नहीं कोई कैमरा


आंख की रेटिना में करीब 125 मिलियन रॉड और 7 मिलियन कोन होते हैं। रॉड से छाया और कम रोशनी में देखने में मदद मिलती है जबकि कोन तेज रोशनी में देखने और रंगों की पहचान करने में सहायक होते हैं। और यह भी तथ्‍य है कि हम आंखों से नहीं बल्कि अपने दिमाग से देखते हैं। आंखें वास्‍तव में कैमरे का काम करती हैं।




आकार के बारे में तथ्‍य


यह तथ्‍य भी चौंका देने वाला है क्‍या आप जानते हैं कि कोहनी से निचले भाग से कलाई तक के भाग जितने ही आपके पैर होते हे। इसी प्रकार आपके अंगूठे की लम्‍बाई आपकी नाक की लम्‍बाई जितनी होती है और होठों की लम्‍बाई आपकी पहली उंगली जितनी होती है।



ब्लड सर्कुलेशन बढ़ने से बेहतर होती है इम्यूनिटी


ब्लड यानी रक्त मानव शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। आपके पूरे शरीर में न्यूट्रिएंट्स, इलेक्ट्रोलाइट्स, हार्मोन्स, हीट और ऑक्सीजन पहुंचाने का काम रक्त ही करता है। आपके शरीर के विभिन्न हिस्सों को स्वस्थ्य रखने और इम्यूनिटी सिस्टम यानि रोग-प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करने का काम भी ब्लड ही करता है। लेकिन आपको पता है ब्लड के सही सर्कुलेशन के लिए आपके ब्लड प्रेशर, हार्ट रेट, ब्लड शुगर, ब्लड टाइप और कोलेस्ट्रॉल का नियंत्रण में होना अत्यधिक जरूरी है। आइये जानते हैं वो कौन से 8 तरीके हैं जिनसे आपका ब्लड सर्कुलेशन बढ़ता है इम्यूनिटी सिस्टम बेहतर होता है।


साइक्लिंग


साइक्लिंग ब्लड सर्कुलेशन बढ़ाता है। रोजाना साइक्लिंग करने से आपके पैरों के मसल्स शेप में आ जाएंगे। जो लोग बहुत ही कम एक्सरसाइज करते हैं उनके लिए साइक्लिंग बेहतर है। जब आपका ब्लड सर्कुलेशन बेहतर हो जाएगा तो आपकी इम्यूनिटी पावर अपने आप ही बढ़ जाएगी।

यह सेल है अनोखी

 यह सेल है अनोखी  

मोटर न्‍यूरोन्‍स मनुष्‍य के शरीर में सबसे लंबी सेल होती है। यह रीढ़ की हड्डी से शुरू होकर पैर के टखने तक जाती है और जिसकी लंबाई 4.5 फुट (1.37 मीटर) तक हो सकती है।



जबड़ा होता है सबसे तगड़ा


किसी भी प्रकार की दुर्घटना होने पर हड्डियां ही सबसे अधिक टूटती हैं, परन्‍तु जबड़े की हड्डी इतनी मजबूत होती है कि उस पर कोई असर नहीं पड़ता है। यह लगभग 280 किलो वजन भी सहन कर सकती है।



भोजन नहीं नींद जरूरी


हमेशा से माना जाता है कि व्‍यक्ति खाएं बिना ज्‍यादा समय तक जिन्‍दा नहीं रह सकता। लेकिन इस बारे में यह तथ्‍य है कि व्यक्ति भोजन के बिना तो कई हफ्ते गुजार सकता है, लेकिन बिना पानी और नींद के एक सप्ताह निकालना भी मुश्किल हो जाता है।



सब जला देता है ये तेजाब


पेट में बनने वाला एसिड इतना तेज होता है कि वह रेजर ब्लेड को भी गला सकता है। इसीलिए पेट के अन्दर का अस्तर हर तीसरे-चौथे दिन बदल जाता है।

नाखूनों की बात

 नाखूनों की बात  

महिलाओं के नाखूनों की तुलना में पुरूषों के नाखून तेज गति से बढ़ते हैं। ऐसा हार्मोंस के कारण होता है। साथ ही नाखून के बढ़ने की गति गर्मियों में अधिक तेज होती है क्योंकि शरीर द्वारा धूप का इस्तेमाल कर विटामिन डी बनाने से बढत तेज हो जाती है।


इतना बुरा नहीं कान का मैल


कान का मैल हमारे रक्षा तंत्र के लिए बहुत जरूरी होता है। यह कानों को कई प्रकार के बैक्‍टीरिया से बचाती है। हालांकि कुछ लोगों को यह बिल्‍कुल भी पसंद नहीं होती पर यह हमारे शरीर के लिए फायदेमंद ही होती है।



किडनियों के आकार में होता है अंतर


मनुष्‍य का दाई किडनी, बाएं किडनी से बड़ी होती है। ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि बाएं किडनी के पास दिल होता है।

महिलाओं के नाखूनों की तुलना में पुरूषों के नाखून तेज गति से बढ़ते हैं। ऐसा हार्मोंस के कारण होता है। साथ ही नाखून के बढ़ने की गति गर्मियों में अधिक तेज होती है क्योंकि शरीर द्वारा धूप का इस्तेमाल कर विटामिन डी बनाने से बढत तेज हो जाती है।


इतना बुरा नहीं कान का मैल


कान का मैल हमारे रक्षा तंत्र के लिए बहुत जरूरी होता है। यह कानों को कई प्रकार के बैक्‍टीरिया से बचाती है। हालांकि कुछ लोगों को यह बिल्‍कुल भी पसंद नहीं होती पर यह हमारे शरीर के लिए फायदेमंद ही होती है।



किडनियों के आकार में होता है अंतर


मनुष्‍य का दाई किडनी, बाएं किडनी से बड़ी होती है। ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि बाएं किडनी के पास दिल होता है।

मानव शरीर से जुड़े तथ्‍य

 मानव शरीर से जुड़े तथ्‍य  

इनसानी शरीर दुनिया की सबसे पेचीदा मशीन है। हमारे शरीर के बारे में कई ऐसी बातें हैं, जिनसे हम शायद ही वाकिफ हों। इस शरीर से जुड़े कई ऐसे तथ्‍य हैं, जो वाकई हैरान करने वाले हैं। आइए इस स्‍लाइड शो के जरिये इनसानी शरीर के बारे में कुछ रोचक बातें जानते हैं।



आंखों की कहानी


आंखों की खूबसूरती की कसीदे तो आपने बहुत सुने होंगे, लेकिन क्‍या आप जानते हैं कि हमारे यह हमारे शरीर का एकमात्र ऐसा अंग है जिसका आकार कभी नहीं बदलता। जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक इनसान की आंख का आकार एक समान रहता है। हालांकि, समय के साथ-साथ इसके लैंस का आकार जरूर मोटा होता जाता है। हां एक और बात हमारे कान और नाक मृत्‍यु पर्यंत बढ़ते रहते हैं।



दिमाग की पेचीदगी


मनुष्यों में मस्तिष्क को पूरी तरह से विकसित होने में करीब 25 वर्ष लगते हैं ज‍बकि फेफड़ों को पूरी तरह से विकसित होने में 18 से 22 वर्ष तक का समय लगता है।

मूत्र त्याग:

 मूत्र त्याग: 

यह एक इन्वोलन्टरी रिफलक्स है जो वोलन्टरी कन्ट्रोल से जुड़ा है । जब मूत्राशय मूत्र से भरना शुरू होता है तो पहले इसका दाब अधिक हो जाता है तो इसकी दीवार में स्थित स्ट्रेच रिसेप्टर स्टीमुलेट हो जाते हैं । यहां से जाने वाली तरंगें पैरासिम्पैथेटिक मिक्चयूरेटिंग रिफलेक्स सेन्टर को उत्तेजित करते हैं जिससे मूत्राशय का रिफलेक्स कान्ट्रेक्सन व स्फिन्कन्टरों का रिलेक्सेसन हो जाता है व मूत्र बाहर निकाल दिया जाता है ।


यहां तक कोई कान्शियस सेन्सेशन नहीं होता है पर जब मूत्राशय में मूत्र की मात्रा 500 मिली॰ हो जाता है तो यह दुखदायी हो जाता है । इसके अलावा सेरेब्रल कार्टेक्स का इक्सटर्नल स्फिन्कटर के ऊपर वोलेन्टरी कन्ट्रोल होता है ।


स्पानल कार्ड या सेव्रव्रल इन्जरी होने पर यह ऐक्षिक कन्ट्रोल समाप्त हो जाता है तथा इन्कान्टिनेन्स (Incontinence) हो जाती है । कुछ स्थितियों जैसे उदर की शल्य क्रिया के पश्चात रोगी मूत्राशय में अधिक मूत्र होने पर भी आ त्याग नहीं कर पाता है 

रक्त प्रवाह:

 रक्त प्रवाह: 

इन्टरनल इलायक धमनी की बाचें रक्त पहुंचाती हैं तथा शिरायें इन्टरनल इलायक शिराओं में खुलती हें ।


तन्त्रिका तन्त्र:


सिम्पैथेटिक व पैरासिम्पैथेटिक दोनों तन्तु वाडी (Detrusor) व इन्टरनल थूरिथ्रल सिफन्कटर को सप्लाई करते हैं ।


कार्य:


मुख्य कार्य मूत्र का इकट्‌ठा करना, व शरीर से बाहर निकालना है ।


यूरिथ्रा:


यह मूत्राशय के निचले भाग से शुरू होकर शरीर से बाहर खुलने वाली नली है । यह पुरूषों में शिश्न के अगले सिरे पर तथा महिलाओं मे वेजानल छिद्र के आगे एक छोटे छिद्र के रूप में खुलती है । यूरिथ्रा में दो स्किन्कटर इन्टरनल व इक्सर्टनल स्फिन्क्टर होते हैं ।


पुरुषों में थुरिथ्रा लगभग 20 सेमी॰ लम्बी होती है तथा इसको प्रोस्टेटिक, मेम्ब्रेनस तथा पेनाइल यूरिथ्रा में बांटा जाता है, जबकि महिलाओं में यह केवल 4 सेमी॰ लम्बी होती है । यह इन्टरनल यूरिथ्रल छिद्र से शुरू होकर नीचे तथा आगे की ओर बढ्‌कर वेजाइना की अगली दीवार के साथ वेजाइना के आगे व क्लाइटोरस के 2 सेमी॰ नीचे एक छिद्र के रूप में शरीर से बाहर खुलती है । इस छिद्र को यूरिनरी मीट्‌स कहते हैं । यूरिथ्रा म्यूकस मेम्ब्रेन से ढकी होती है । 

रेनिन का निर्माण:

 रेनिन का निर्माण: 

रेनिन का स्राव सोडियम की मात्रा या रक्त चाप कम होने पर होता है । रेनिन रक्त में उपस्थित एन्जियोटेन्सिनोजन को एन्जिटेन्सिन-1 में, जो एन्जियोटेन्सिन-2 में परिवर्तित होकर एड्रिनल कार्टेक्स से एल्डोस्टेरान के स्राव को बढ़ाता है । एल्डोस्टेरान गुर्दे में सोडियम के अवशोषण को बढ़ाता है । जिससे रक्त का आयतन और रक्त दाब बढ़ता है ।


5. गुर्दे इरेथ्रोपोयटिन (Erythropoetin) का निर्माण करते हैं जो अस्थिमज्जा को लाल रक्त कणिकाओं के अधिक निर्माण हेतु उत्तेजित करता है । 



यूरेटर: 



गुर्दी द्वारा बना हुआ मूत्र, मूत्राशय तक यूरेटरों द्वारा पहुंचता है । यह लगभग 25 से॰मी॰ लम्बी नलियां होती हैं जो गुर्दे की पेल्विस से मूत्राशय के पिछले भाग तक फैली होती हैं । इसकी दीवार तीन पतों वाली होती है ।


1. आन्तरिक म्यूकस सतह जो ट्रान्जीसनल इपीथीलियम से बनी होती है ।


2. मध्य की मस्कुलर सतह, जो बाहरी सरकुलर तथा अन्दर लन्गीट्रयूडिनल पेशियों से बनी होती है ।


3. बाहरी फाइब्रस सतह, जो बाहरी फाइब्रस रीनल कैप्सूल से मिल जाती है ।


मूत्राशय: 


यह खिंच सकने वाली मूत्र को एकत्रित करने वाली थैली है जो 200-300 मिली॰ मूत्र इकट्‌ठा कर सकती है । यह सिम्फाइसिस प्यूविस के ठीक पीछे स्थित होती है । इसकी अगली सतह पेराइटल पेरीटोनियम से ढकी रहती है (चित्र 3.50) । पुरुषों में इसके पीछे रेक्टम, वासडिफरेन्स और सेमिनल वेसिकिल स्थित होते है, तथा मूत्राशय की गर्दन पौस्टेट ग्रन्थि पर स्थित होता है

गुर्दे

 गुर्दे: 

बारहवीं थोरेसिक वर्टिब्रा से लेकर तृतीय लम्बर वर्टिब्रा के लेविल पर वर्टिब्रल कालम के दोनों ओर दोनों गुर्दे स्थित होते हैं । प्रत्येक गुर्दे का भार लगभग 150 ग्राम होता है तथा आकार सेम के आकार की 10-12 से॰मी॰ लम्बी व 5-6 से॰मी॰ चौडी होती है ।


कार्यविधि:


गुर्दे की बेसिक फन्कशनल यूनिट (Basic functional units) नेफ्रान (Nephron) होती है जो प्रत्येक गुर्दे में लगभग 10 लाख होते हैं । प्रत्येक नेफ्रान में कैपलरियों का एक गुच्छा होता है जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं । जो नली के बन्द सिरे की ओर स्थित रहकर मालपिजियन कारपसल (Mal-pighian corpuscle) बनाती है जो नेफ़्रान का पहला भाग है (चित्र 3.46) । नेफ्रान के निम्न भागों को चित्र 3.46 में दर्शाया गया है । 




गुर्दे और सुप्रारीनल एडीपोस कैप्सूल से ढके रहते हैं । दांया गुर्दा मध्य की ओर डियोडिनम तथा नीचे दांये कोलोनिक (Colonicflexure) फ्लेक्सर से संबंधित होता है । बांया गुर्दा बांये कोलोनिक फ्लेक्सर और पैन्क्रियाज की टेल से सम्बन्धित होता है । (चित्र 3.46) प्रत्येक गुर्दे के एन्टीरियर और पोस्टीरियर सतहें, मीडियल व लैट्रल (Lateral) मार्जिनें (margin) तथा ऊपरी व निचले सिरे (poles) होते हैं ।


मीडियल साइड पर दोनों गुर्दी में दोनों सिरों के मध्य रीनल हाइलम होता है जिससे रीनल धमनी अन्दर आती है व यूरेटर और शिरा बाहर जाती है । यूरिनरी चैनल का ऊपरी सिरा रीनल पेल्विस कहलाता है जिसके ऊपर व पीछे से रीनल वेसल जाती हैं । 



रीनल पेल्विस का ऊपरी भाग दो या अधिक मेजर कैलेक्सों के मिलने से बनता है तथा निचला भाग यूरेटर में खुलता है । वास्तव में रीनल पेल्विस को यूरेटर का ऊपरी फैला हुआ भाग माना जा सकता है । गुर्दे को काटने पर इसके दो भाग बाहरी कार्टेक्स तथा अन्दर का मेडूला दिखायी पड़ता है । कार्टेक्स में ग्लोमेरूलाई व कन्वूलेटेड ट्‌यूव्यूल स्थित होते हैं, जबकि मेडूला में कलेक्टिंग डक्ट होती हैं । मेडूला में ही रीनल पिरैमिड भी स्थित होते हैं जिनका आधार कार्टेक्स की तरफ तथा पतला पैपिला (Papilla) वाला भाग माइनर कैलक्स पर स्थित होता है । 

ह्रदय धड़कन Heart Beats

 ह्रदय धड़कन Heart Beats 

शरीर में रक्त-संचार की प्रक्रिया हृदय की पंपिंग या धड़कन द्वारा संपन्न होती है। प्रत्येक धड़कन की तीन अवस्थाएं होती हैं: दो अलिंदों का संकुचन (Contraction of the two Atrium), दो निलयों का संकुचन (Contraction of two Ventricles) तथा विश्राम काल (Rest period)|


हृदय की धड़कन को हार्ट बीट कहते हैं। एक बार की धड़कन में एक कार्डिअक चक्र (Cardiac cycle) पूरा हो जाता है। वक्ष पर बाईं ओर कान लगाकर या स्टेथोस्कोप (Stethoscope) रखकर हृदय की धड़कन सुनी जा सकती है। नवजात शिशु के हृदय की धड़कन प्रति मिनट लगभग 140 बार होती है। दस वर्ष के बच्चे का हृदय एक मिनट में 90 बार धड़कता है। पुरुष के हृदय की धड़कन 70-72 बार प्रति मिनट होती है। स्त्री का हृदय एक मिनट में 78-82 बार धड़कता है। व्यायाम करते समय हृदय की धड़कन प्रति मिनट 140 से 180 बार तक हो जाती है। हृदय की धड़कन अपने आप ही होती रहती है। इस पर मस्तिष्क का कोई नियंत्रण नहीं होता। हृदय की धड़कन का नियंत्रण पेस मेकर करता है।


ह्रदय ध्वनि Heart Sound


    हृदय ध्वनियों में लब (Lubb) नामक प्रथम ध्वनि तब उत्पन्न होती है, जब आलिन्द तथा निलय के बीच के कपाट या वाल्व बन्द होते हैं तथा इसी क्षण निलयों (Pentricles) का संकुचन होता है।

    हृदय ध्वनियों में डब (Dubb) नामक दूसरी ध्वनि तब उत्पन्न होती है, जब अर्द्धचन्द्राकार कपाट बन्द होते हैं। ये वे वाल्व हैं, जो निलय तथा महाधमनियों के बीच होते हैं। कपाट व वाल्व रूधिर को विपरीत दिशा में बहने से रोकते हैं।


    RBCs की अधिकता (सामान्य से ज्यादा) पोलीसाइथीमिया (Polycythemia)

    RBCs की कमी (सामान्य से कम) रक्ताल्पता (Anaemia)

    WBCs की अधिकता (सामान्य से अधिक) ल्यूकमिया (Leukemia)

    WBCs की कमी (सामान्य से कम) ल्यूकोपीनिया (Leukopenia)


हृदय रोग Heart Diseases


    हृदय में कपाटीय रोग, वाल्व के ठीक प्रकार से कार्य करने में असमर्थ होने से होता है। इसमें रूधिर विपरीत दिशा में जाने लगता है।

    एन्जाइना हृदय रोग, भित्ति को ठीक तरीको से रूधिर प्राप्त नहीं होने के कारण होता है। यह कोरोनरी धमनी के संकुचन या उसमें थक्का जमने से होता है।

    पेरिकार्डियोटिस (Pericardiotis): मानव हृदय, एक आवरण से घिरा रहता है। इस आवरण की परतों में एक द्रव भरा रहता है जिसे पेरिकार्डियल द्रव कहते हैं। इस रोग में जीवाणु के संक्रमण के कारण हृदय आवरण में सूजन आ जाती है।

    रूमैटीक हृदय रोग जीवाणु संक्रमण के कारण हृदय के कपाट ठीक से कार्य नहीं कर पाते और हृदय की पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं।

कुछ महत्त्वपूर्ण शिराओं द्वारा रक्त वापसी

 कुछ महत्त्वपूर्ण शिराओं द्वारा रक्त वापसी 

    जुगुलर शिरा (Jugular Vein): सिर से

    सबक्लेवियन शिरा: बाजू से

    ब्रेकियल शिरा: आस्तीन (हाथ) से

    पल्मोनरी शिरा: फेफड़े से

    वेना केवा (Vena Cava): शरीर से हृदय को

    रीनल शिरा: वृक्क से

    हिपैटिक शिरा: यकृत से

    हिपैटिक पोर्टल शिरा (Hepatic portal vein): आंतों से यकृत को

    इलियक शिरा: टांग से

    फिमोरल शिरा: टांग से


हृदय


हमारे शरीर का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, जो वक्ष में बाईं ओर स्थित होता है। बंद मुट्ठी के आकार के हृदय का भार लगभग 300 ग्राम होता है। इसके दोनों ओर दो फेफड़े होते हैं। हृदय पर झिल्ली का बना एक आवरण होता है, जिसे पेरीकार्डियम (Pericardium) कहते हैं। इसकी दो परतें होती हैं- एक परत हृदय के संपर्क में रहती है और दूसरी इसके बाहर होती है। हृदय वास्तव में एक मांसपेशी है, जिसके अंदर रक्त भरा रहता है। इस भाग को मायोकार्डियम (Myocardium) कहते हैं। इसके अंदर की परत, जो रक्त के संपर्क में रहती है, एन्डोकार्डियम (Endocardium) कहलाती है।


हृदय एक खोखला अंग है, जो चार कोष्ठों (Chambers) में बंटा होता है। दो कोष्ठ दाहिनी ओर होते हैं, जिनके बीच में एक परदा (Septum) होता है, जो दाहिने और बाएं ओर के रक्त को मिलने नहीं देता। ऊपर का कोष्ठ अलिंद (Atrium) और नीचे का निलय (Ventricle) कहलाता है। इस प्रकार दोनों तरफ दो-दो कोष्ठ होते हैं – दाहिना अलिंद (Right Atrium) और निलय (Ventricle) तथा बायां अलिंद (Left Atrium) और निलयI अलिंद और निलय के बीच में बड़े-बड़े छेद होते हैं, जिनमें वाल्व (Valve) लगे होते हैं। ये केवल एक ही दिशा में निलय की ओर खुलते हैं। इनसे रक्त अलिंद से निलय में तो जा सकता है, लेकिन निलय से अलिंद में वापस नहीं आ सकता। ये वाल्व बंद होकर उसके जाने का मार्ग रोक लेते हैं।


हृदय एक पंप की तरह काम करता है और समस्त शरीर में रक्त को भेजता है। इसकी दो साइडें एक साथ काम करती हैं। एक ओर से इसमें महाशिरा (Vena Cava) और पल्मोनरी धमनियों द्वारा रक्त आता है, जो हृदय के ऊपरी कोष्ठ अलिंद (Atrium) में एकत्र हो जाता है। रक्त अलिंद से निलय (Ventricle) में जाता है और दाहिने निलय से पल्मोनरी धमनी (PulmonaryArtery) द्वारा फेफड़ों में पहुंचता है। फेफड़ों में ऑक्सीजन के मिलने से वह शुद्ध होकर पल्मोनरी शिराओं में होता हुआ बाएं अलिंद में लौट आता है। जब वह अलिंद से निलय में जाता है, तो वह उसको महाधमनी (Aorta) में भेज देता है।

मस्तिष्क तथा व्यवहार

 मस्तिष्क तथा व्यवहार  

मस्तिष्क तथा व्यवहार (Brain and Behaviour):


मस्तिष्क हमारे शरीर में मुख्य नियन्त्रक का कार्य करता है । यह तन्त्रिका ऊतकों (Nervous Tissue) का बना एक कोमल एवं खोखला अंग होता है । यह खोपड़ी की कपाल गुहा (Ganial Cavity) में सुरी क्षत बन्द रहता है इसे सहारा देने और बाहरी आघातो दबावों आदि से सुरक्षा करने हेतु तीन झिल्लियों का आवरण होता है ।


बाहर से भीतर की ओर ये निम्नलिखित होती हैं:


(1) दृढ़तानिका या ड्यूरामेटर (Duramatter):


कपाल गुहा के चारों ओर की अस्थियों पर मढी, मोटी, दृढ़ एवं लोच विहीन, सबसे बाहरी झिल्ली होती है । इसमें कोलैजन तन्तुओं की ज्यादा संख्या पायी जाती है ।


(2) जालतानिका या ऐरेक्नाऐड (Arachnoid):


यह आवरण मध्य में पाया जाता है । इसमें रक्त नलिकाएँ अनुपस्थित होती हैं लेकिन इसमें महीन जाली पायी जाती है इससे तथा दृढ़तानिका के बीच सँकरे खाली स्थान में एक तरल भरा रहता है जो दोनों तानिकाओं को नम बनाकर रखता है ।


(3) मृदुतानिका या पाइमेटर (Piamatter):


यह मस्तिष्क पर चढी हुई सबसे भीतर की ओर तथा कोमल झिल्ली होती है । इसके अनेक महीन कण रक्त नलिकाओ के जाल फैला देता है मस्तिष्क की गुहा में कुछ क्षारीयसा द्रव भरा रहता है यह द्रव मस्तिष्क को सहारा देता है इसे नम बनाये रखता है । इस द्रव को सेरीब्रोस्पाइनल द्रव (Cerebrospinal Fluid) कहते हैं ।


मस्तिष्क की बाहरी संरचना (Outer Structure of Brain):


मानव में सबसे ज्यादा विकसित मस्तिष्क पाया जाता है । इसका आकार भी बहुत बड़ा होता है इसमें अन्य सभी जानवरों के मुकाबले सोचने-समझने की क्षमता पायी जाती है । मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जाता है । 

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions):

 प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions): 

वातावरण के परिवर्तन के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ व अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ । ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना एवं इच्छा के अनुसार सुनियोजित एवं सउद्देश्य होती हैं । अत: इन पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है जैसे – भोजन करना, भागना, चलना इत्यादि । इसके विपरीत अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना शक्ति के अधीन नहीं होती हैं ।


अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं – प्रतिक्षेप या प्रतिवर्ती (Reflex) व स्वायत्त (Autonomic) । प्रतिवर्ती क्रियाएँ प्राय: स्पाइनल तन्त्रिकाओं द्वारा सम्यता होती है; जैसे – पकवान देखकर मुँह में पानी आना, आंखों के आगे अचानक किसी वस्तु के आ जाने पर या तेज प्रकाश पड़ने पर पलकों का झपकना इत्यादि । यह सब अनैच्छिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं ।


प्रतिवर्ती क्रिया बहुत जल्दी होती हैं क्योंकि मेरुरज्जु संवेदी सूचनाओं को एक दर्पण की भांति ज्यों-की-त्यों तुरन्त चालक प्रेरणाओं के रूप में लौटा देता है । इसलिए इन्हें प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहा जाता है । यह भी दो प्रकार की होती हैं- अबन्धित तथा अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ । 



(i) अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditional Reflexes):


ये वंशगत प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं जिन्हें मनुष्य इच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकता है; जैसे- खानदानी गायक आदि होना ।


(ii) अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditional Reflexes):


ये क्रियाएँ प्रशिक्षण द्वारा होने लगती हैं । प्रारम्भ में इन क्रियाओं पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है, लेकिन बाद में भली- भांति स्थापित हो जाने पर यह आदत बन जाती हैं; जैसे – नाचना, साइकिल चलाना, तैरना, खेलना आदि । 

तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:

 तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन 

तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:


(1) कोशिका पिण्ड:


यह कोशिका का ऊपरी भाग होता है इसी भाग मे केन्द्रक होता है । कोशिका पिण्ड के भाग से अनेक तन्तु निकलते हैं जिन्हें ‘पार्श्वतन्तु’ (Dendrite) कहते हैं । इनकी पुन: उपशाखाएँ हो जाती हैं । ये शाखाएँ वास्तव में जीवद्रव्य के निचले भाग होते हैं जिनके ऊपर की ओर झिल्ली रहती है नीचे की ओर निकली लम्बी शाखा कोशिका का दूसरा भाग होता है, इसे हम अक्ष तन्तु (Axon) कहते हैं ।


(2) अक्ष तन्तु (Axon):


यह झिल्ली के नीचे की ओर से निकलती पतले-पतले ब्रुश के समान होते हैं । इन्हें (End Brush) कहते हैं । इन्हीं की सहायता द्वारा तन्त्रिका कोशिका एक चैन के समान जुड़ी रहती है । तन्त्रिका कोशिका भूरे रंग की होती है । तन्त्रिका कोशिका से निकलने वाले तन्तु सफेद रंग के होते हैं, जिन्हें ऊतक भी कहा जाता है ।


तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु सन्देश ग्रहण करते हैं । यह सन्देश को दूसरी तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु में पहुँचाते हैं । इस प्रकार न्यूरॉन की चेन द्वारा संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाता है । दो न्यूरॉन के बीच जो दूरी होती है, उसे साइनैप्स कहते हैं । 




युग्मानुबन्ध (Synapsis):


लगभग 100 अरब वर्ष पूर्व से ही मनुष्य में पृथक् तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं । प्रत्येक तन्त्रिका कोशिकाओं का अक्ष तन्तु स्वतन्त्र छोर पर अनेक छोटीछोटी शाखाओं में बँटा होता है जो निकटवर्ती तन्त्रिका के डेन्टाइट्स पर फैला रहता है ।


इन शाखाओं के स्वतन्त्र छोर घुण्डीनुमा होते हैं, इनके और उन रचनाओं के बीच जिन पर ये फैली रहती हैं, प्राय: कोई भौतिक स्पर्श नहीं होता है वरन् दोनों के बीच एक सँकरा तरल से भरा बन्द-सा स्थान बचा रहता है, जिसे सिनैप्टिक विदर (Synaptic Cleft) कहते हैं । इसी सन्धि स्थानों को युग्मानुबन्ध (Synapsis) कहते हैं ।


शरीर की अधिकांश तन्त्रिका कोशिकाओं को दो भागों में बाँटा जाता है:


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells);


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells) |


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells):


सन्देशवाहक में वे तन्त्रिकाएँ होती हैं जो कि बाहरी जगत की उत्तेजनाओं से प्रभावित होती हैं जिसके कारण इनमें संवेदना उत्पन्न होती है । उस संवेदना के कारण प्राप्त सूचना को ये तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क व सुषुम्ना में पहुँचाती हैं । हमारे शरीर में सन्देश अंग आँख, नाक और कान होते हैं ।


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells):


चालक तन्त्रिकाएँ मुख्यत: मस्तिष्क से प्रेरणाओं को प्रतिक्रियाओं को करने वाली पेशी या अस्थि कोशिकाओं में पहुँचाती हैं चालक तन्त्रिकाएँ आँख, नाक, स्वर यन्त्र व जीभ आदि अंगों में पायी जाती हैं । 


छोटी आंत की मूवमेंट तीन प्रकार की होती है:

 छोटी आंत की मूवमेंट तीन प्रकार की होती है:  

(1) सेगमेन्टेशन |


(2) पेन्डुता |


(3) तथा पेरिसटेलसिस ।


1. सेगमेन्टेशन:


ये भोजन के मिश्रण, अवशोषण व आगे ठेलने में मदद करते है । सेग्मेन्टेशन में अरेखीय पेशियों के वृत्ताकार कान्ट्रेक्शन होते हैं जो आंत में स्थित पदार्थो को सेग्मेन्टों में बांट देते हैं । ये कान्ट्रैक्सन फिर ढीले होते हैं तथा नये कान्ट्रैक्शन इनके बीच फिर बनते हैं । सेग्मेन्टेशन की दर डियाडिनम से सबसे अधिक होती है । इसका नियंत्रण छोटी आंत की दीवार में स्थित नर्व प्लेक्सस द्वारा होता है । इस प्रकार की तरंगे भोजन में इन्टेस्टिनल जूस के मिलन में बहुत मदद करते हैं ।


2. पेन्ड़ुलर मूवमेन्ट:


आंत में उपस्थित पदार्थो को म्यूकोसा की सतह पर आगे-पीछे करते हैं । इस प्रकार की गति, भोजन के जूसों से मिलने व अवशोषण में मदद करती हैं ।


3. पेरिस्टैलसिस:


छोटी आंत में तेजी से होने वाली गति आंत में स्थित पदार्थों को इलियोसीकल वाल्व की ओर ले जाती है ।


छोटी आंत में भोजन का अवशोषण:


छोटी आंत में उपस्थित विलाई इसके सरफेस एरिया को बहुत बढ़ा देते हैं जिससे भोजन का अवशोषण अच्छी प्रकार से हो सकता है ।


बड़ी आंत:


छोटी  आंत में स्थित पदार्थ द्रव के रूप में होते हैं जो इलियोसीकल वाल्व द्वारा गुजर कर सीकम और कोलन में पहुंचते हैं । केवल लगभग 100 मिली॰ पानी ही रेक्टम में प्रतिदिन पहुंचता है, बाकी सीकम व असेण्डिंग कोलन में सोख लिया जाता है ।


मास पेरिस्टेल्सिस कोलन के पदार्थो को रेक्टम की ओर ढकेलती है । यह प्राय: होती रहती है । पर खाने के पश्चात अधिक तीव्रता से होती है इसे गेस्ट्रोकोलिक रिफलेक्स कहते हैं ।


मलत्याग:


रेक्टम में मल की उपस्थिति मलत्याग की इच्छा पैदा करती है । मल रेक्टम में इकट्‌ठा होता है । रेक्टम की दीवारों में होने वाले खिचाव से इसमें स्थित सेन्सरी तन्त्रिकायें ऐनल स्फिन्कटर को ढीला करवाती है तथा उदर व डायाफ्राम को सिकोड़ती हैं जिससे उदर का दाब बढ़ जाता है । 

गैस्ट्रिक जूस के कार्य:

 गैस्ट्रिक जूस के कार्य: 

(a) हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेट के पदार्थो को अम्लीय करता है जो भोजन के साथ पेट में पहुंचे बहुत सारे कीटाणुओं को नष्ट कर देता है ।


(b) पेप्सिन प्रोटीन के पाचन की शुरुआत इसे पेप्टोन व प्रोटीओज में तोड़कर करता है ।


(c) म्यूकस ग्रैस्ट्रिक म्यूकोसा के ऊपर एक सतह बनाता है जो क्षारीय होती है और म्यूकोसा की रक्षा पेप्सिन व हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से करती है ।


(d) इन्ट्रिन्सिक फैक्टर विटामिन बी – 12 से जुड़कर इलियम में अवशोषित हो जाता है ।


गैस्ट्रिक जूस के स्राव का नियंत्रण:


इसकी दो विधियां हैं: तंन्त्रिका तन्त्र द्वारा व ह्‌यूमोरल विधि द्वारा ।


तन्त्रिका तन्त्र द्वारा:


भोजन का दर्शन, गन्ध व स्वाद गैस्ट्रिक स्राव को बेगस नर्व द्वारा उत्तेजित करता है ।


हयूमोरल:


भोजन की पाइलोरिक एन्ट्रम में उपस्थिति व वेगस का उत्तेजन पाइलोरिक गैस्ट्रिक म्यूकोसा से एक हारमोन का स्राव कराता है जिसे गैस्ट्रिन कहते हैं । गैस्ट्रिन रक्त में जाकर पेराइटल सेलों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निकालने के लिए उत्तेजित करता है । गैस्ट्रिक एसिड का स्राव डर, मितली व पाइलोरिक एन्ट्रम में अधिक अम्ल होने से और डियोडिनम में वसा के होने से कम हो जाता है ।


छोटी आंत भोजन के पाचन व अवशोषण में मुख्य रूप से भाग लेती हे । आमाशय से कुछ पचा हुआ भोजन डियोडिनम बे पहुंचता है जिसे काइम कहते हैं । छोटी आंत में काइम में पहले पैन्क्रियाटिक जूस व पित्तरस (बाइल) और फिर सक्कस इन्टेरिकस मिल जाता है । पैन्क्रियाटिक जूस में एमाइलेज, प्रोटीन तोड़ने वाले एन्जाइम, लवण व बाइकार्बोनेट आयन पाये जाते हैं ।


 पैन्क्रियाटिक जूस के कार्य:


i. पैन्क्रियाटिक जूस में बाइकार्बोनेट आयन अधिक मात्रा में पाये जाते हैं जो गैस्ट्रिक जूस के अम्लीय प्रभाव को समाप्त करते हैं तथा हल्का क्षरीय माध्यम पैदा करते हैं जो पैन्क्रियाटिक जूस के लिए उपयुक्त है ।


ii. एमाइलेज स्टार्च को माल्टोज में तोड़ते हैं ।


iii. लाइपेज न्यूट्रलवसा को ग्लिसराल व फैट्‌टी एसिडों में तोड़ता है ।


iv. ट्रिपसिनोजन इन्टरोकाइनेज से मिलकर कार्यशील ट्रिप्सिन में परिवर्तित हो जाता है जो प्रोटीन प्रेटिओजो व पेप्टोनो को पेप्टइड तथा एमिनों एसिडों में तोड़ देता है ।


v. काइमो ट्रिपसिनोजन ट्रिप्सिन द्वारा अपने कार्यशील रूप काइमोट्रिप्सिन में बदलकर प्रोटीन को छोटे पालीपेप्टाइडों में तोड़ता है । यह दूध को भी जमाता है ।


vi. कार्बाक्सीपेप्टाइड पेप्टाइडों को एमीनों एसिडों में तोड़ते हैं ।


पैन्क्रियाटिक जूस के स्राव का नियंत्रण:


इसका नियंत्रण नर्वस तथा ह्यूमोरल दोनों विधियों से होता है । खाने के तुरंत बाद वेगस द्वारा जाने वाली तरंगें इसका स्राव कराती हैं । एसिड काइम डियोडिनम या जेजुनम में पहुंचकर सिक्रिटिन व पैन्क्रियोजाइमिन हारमोनों के स्राव को उत्तेजित करता है जो रक्त संचार में जाकर पेन्क्रियाज को जूस के स्राव के लिए उत्तेजित करते हैं ।


पित्त रस:


पित्त का स्राव लगातार यकृत द्वारा किया जाता है जो पित्ताशय में गाढ़ा होता है क्योंकि स्फिन्कटर ऑफ ओडई प्राय: बन्द होता है । पित्त में पानी, लवण, म्यूकस, बाइल लवण, बाइलपिगमेन्ट व कोलेस्टरोल होते हैं । बाइल लवणों के मुख्य कार्य सर्फेस टेन्शन घटाकार बसा का इमल्सीकरण करना है ।


यह वसा, फैट्‌टी एसिडों, ग्लिसराल व वसा में घुलनशील विटामिनों के अवशोषण में मदद करता है । वाइल पिगमेन्ट पित्त को रंग प्रदान करते हैं । पित्त का स्राव भी नर्वस व ह्यूमोरल विधियों से नियंत्रित होता है । डियोडिनम में वसा तथा मांस की उपस्थिति एक हारमोन कोलीसिस्टोकायनिन के स्राव को उत्तेजित करते हैं ।


यह पैन्क्रियाजाइमिन के समान होता है । वेगस नर्व स्फिन्क्टर ऑफ ओडाई को ढीला करती है तथा पित्ताशय को कान्ट्रेक्ट कराती है । सक्कस इन्टेरिकस छोटी आंत की ग्रन्थियों से निकलता है । इसमें पानी, लवण, बाइकार्बोनेट आयन व एन्जाइम होते हैं । ये एन्जाइम कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन व वसा को इनके सरल रूपों में तोड़ते हैं । 

यकृत:

 यकृत: 

शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है जिसका वजन 1.5 किग्रा से अधिक होता है । यह उदर के ऊपरी भाग, दायें हाइपोकान्ड्रियम व इपीगैस्ट्रियम में स्थित होता है तथा यह बायें हाइपोकान्ड्रियम में भी फैला होता है । इसमें अगली, पिछली, ऊपरी, निचली और दांयी सतहें होती हैं ।


आगे व निचली सतहें नुकीली होती हैं, जबकि अन्य सतहें गौण होती हैं । यकृत को दो मुख्य लोबों में बांटा गया है और अन्य छोटे लोब क्वाड्रेट तथा कोडैट इसकी निचली सतह पर स्थित होते हैं । इसकी भिन्न सतह डायाफ्राम, ग्रासनली, उदरस्थ महाधमनी, इन्फीरियर वीनाकेवा, दायें गुर्दे, दांयी सुप्रारीनल ग्रन्थि, डियोडिनम, हिपेटिक फ्लैकसर, कोलन, पित्ताशय व आमाशय से संबंधित होती है । 


पाचन के सामान्य तथ्य:


पाचन नली से गुजरते समय भोजन पर, एन्जाइम क्रिया कर इसे रक्त द्वारा अवशोषित हो सकने वाले छोटे-छोटे कणों में तोड़ देता है । इस क्रिया को पाचन कहते हैं । भोजन के कुछ तत्व जैसे पानी, लवण, विटामिन व ग्लूकोज जैसे के तैसे छोटी आंत द्वारा अवशोषित हो जाते हैं । कुछ अन्य तत्व न तो पचते हैं और न अवशोषित होते हैं और इन पदार्थो को मल के रूप मे शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है ।


भोजन में तीन मुख्य तत्व होते हैं:


कार्बोहाइड्रेड, वसा तथा प्रोटीन ।


कार्बोहाइड्रेट:


ये शरीर को ऊर्जा प्रदान करने के मुख्य स्रोत हैं जो भोजन में मोनोसैक्राइड (ग्लूकोज व फ्रक्टोज) जो ज्यूजेनम व ऊपरी इलियम द्वारा अवशोषित हो जाते हैं, डाइसैक्राइड (दो मोनोसैक्राइड से मिलकर बनते हैं – सुक्रोज व लैक्टोज) और पालीसैक्राइड (कई मोनोसैक्राइड से मिलकर बनाते हैं -जैसे स्टार्च) के रूप में उपस्थित होता है ।


वसा:


वसा कार्बोहाइहेट की अपेक्षा दो गुनी ऊर्जा प्रदान करती है । वसा पाचन नली में पूर्णत: अवशोषित होने के लिए फैट्‌टी एसिड व ग्लिसरेल में तोड़ दी जाती है ।


वसा के दो मुख्य स्रोत है:


1. जानवर  |


2.वनस्पतियों ।


प्रोटीन:


शरीर की वृद्धि व टूट-फूट की मरम्मत के लिए आवश्यक है । इनका निर्माण एमीनो एसिड के मिलने से होता है । पाचन के दौरान ये पेप्टाइडों व एमिनो एसिड में तोड़ दिये जाते हैं । सामान्य स्वास्थ्य के लिए विटामिन आवश्यक है । इनकी आवश्यकता बहुत थोड़ी मात्रा में होती है पर इनका निर्माण शरीर में नहीं होता है ।


यह दो प्रकार के होते हैं । वसा में घुलनशील विटामिन-ए, डी, ई, व के तथा पानी में घुलनशील विटामिन बी व सी । इनमे से विटामिन बी कई विटामिनों का एक समूह है जो तन्त्रिका तन्त्र, त्वचा, इपीथीलियलाटिश्यू व सामान्य रक्त कणिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है ।


आवश्यक (ऐसेन्सियल) मिनरलों में सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर व आयोडीन प्रमुख हैं । पाचन की शुरुआत मुंह में भोजन के चबाने से शुरू होती है । भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ो में तोड़ दिया जाता है । जिसमें लार अच्छी तरह से मिल जाती है । सेलवरी ऐमाइलोज स्टार्च को माल्टोज में तोड़ने की शुरुआत करता है । इसके पश्चात भोजन को निगल लिया जाता है ।


आमाशय में पाचन:


निगलने के बाद भोजन इसाफेजियल निकास से होकर आमाशय के फन्डस वाले भाग में पहुंचता है, जहां से यह धीरे-धीरे आमाशय के बाडी वाले भाग में पहुँचता है । जब आमाशय खाली होता है तो इसकी दीवारें एक दूसरे के साथ स्थित होती है । गैस्टिक जूस प्रोटीन के पाचन की शुरुआत करते हैं ।


आमाशय में तीन प्रकार की ग्रन्थियां होती हैं:


(a) मुख्य गैस्ट्रिक ग्रन्थियां जो स्वयं तीन प्रकार की होती हैं, चीफ या पेप्टिक सेल जो पेपिटसनो जन का निर्माण करते हैं, पेराइटल या आक्जेन्टिक सेल जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का निर्माण करते हैं और म्यूकस सेल क्षारीय म्यूकस का निर्माण करते हैं । मुख्य गैस्ट्रिक ग्रन्थियां इन्द्रिन्त्रिक फैक्टर का भी निर्माण करती है ।


(b) पाइलोरिक ग्रन्थियां मुख्य रूप से पाइलोरस में पायी जाती हैं और क्षारीय म्यूकस बनाती हैं ।


(c) कार्डियक ट्यूबुलर ग्रन्थियां मुख्यतया इसोफेजियल निकास के पास के गैसट्रिक म्यूकोसा में पायी जाती हैं ।


भोजन के आमाशय में पहुंचने के बाद आमाशय के बाडी व पाइलोरिक एन्ट्रम में पेरिस्टेल्सिस शुरू हो जाती है तथा कुछ समय पश्चात पायलोरिक सिन्फ़क्टर ढीला हो जाता है तथा पेरिस्टेल्सिस की हर तरंग के साथ थोड़ी मात्रा में द्रव पदार्थ डियोडिनम में चला जाता है । (चित्र 3.42) आमाशय सामान्यतया भोजन के पश्चात तीन या धार धण्टे में खाली हो जाता है । उल्टी आमाशय में पैरिस्टैल्सिस विपरीत दिशा में होने से होती है जिसमे आमाशय के पदार्थ ग्रासनली से होते हुए बाहर आ जाते है 

बड़ी आंत:

 बड़ी आंत: 

बड़ी आंत लगभग 1.5 मीटर लम्बी होती है जो सीकम से गुदा तक होती है । इसका छिद्र छोटी आंत की अपेक्षा काफी बड़ा होता है तथा यह छोटी आंत के चारों ओर स्थित होती है । बनावट में यह सैकुलटेड या हास्ट्रायुक्त होता है । यह सीकम, कोलन, रेक्टम व एनल केनाल से बनी होती है जिसे चित्र 3.39 में दिखाया गया है ।


पैन्क्रियाज भूरापन लिये हुये गुलाबी रंग का होता है, जो आकार में लगभग 15 से॰मी॰ तथा हेड, नेक, बाडी व टेल से मिलकर बना होता है । हेडडियोडिनम की कैप से ढका रहता है, (चित्र 3.40) जबकि नेक बाडी उदर में दूसरा तरफ व इसकी टेल प्लीहा के पास स्थित होती है ।


कामन बाइलडक्ट पैन्क्रियाज के हैड के पीछे से होकर जाती है । पैन्क्रियाज के दो कार्य हैं । इन्होक्रीन व एक्सोक्रीन । इसमें कुछ एन्जाइम बनते हैं जो पैन्क्रियाटिक डक्ट के द्वारा डियोडिनम में पहुंचते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ अतिमहत्वपूर्ण हारमोनों का निर्माण लैगहैन्स कोशिकाओं द्वारा किया जाता है तथा वे सीधे रक्त में पहुंचते हैं । इनमें प्रमुख इन्सुलिन, ग्लूकागेन व सोमेटोस्टेटिन है । 

छोटी आंत:

 छोटी आंत: 

छोटी आंत की लम्बाई लगभग 6 मीटर होती है तथा ये आमाशय के पायलोरिक ओरिफिस से लेकर इलिओसीकल बाल्व द्वारा बड़ी आंत में खुलती है जिसे तीन भागों में बांटा जा सकता है ड्‌यूडीनम, ज्यूजेनम और इलियम ।


ड्यूडीनम लगभग 25 से॰मी॰ लम्बा होता है । यह छोटी आंत का सबसे छोटा व चौड़ा भाग है । यह पैन्क्रियाज के हेड के आसपास ‘C’ के आकार की टोपी बनाता है जिसे चार भागों में बांटा जा सकता है । इसके अन्य भागों से संबंधों को चित्र 3.38 में दिखाया गया हे । 



ज्यूजेनम और इलियम ड्‌यूडिनोज्यूजिनल फ्लेक्सर से इलियोसीकल वाल्व तक फैला होता है । यह पूरी तरह से पेरीटोनियम से घिरे होते हैं । ऊपरी ज्यूजेनम का 2/5 भाग अम्बलाइकल रीजन में रहने की कोशिश करता है, जबकि इलियम हाइपोगेस्ट्रिक रीजन और पेल्विक केवटी के उपरी भाग में । इलियम का अंतिम भाग इलयोसीकल वाल्व द्वारा सीकम में खुलता है ।


ज्यूजेनम के ऊपरी भाग तथा इलियम के अंतिम भाग की रचना में कुछ अंतर होता है । ज्यूर्जेनम का छिद्र इलियम की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है तथा इसकी म्यूकोसा गोलपर्तों में स्थित होती है जिसे बाल्वोली कान्वेटिंस कहते हैं । इन्टेसटीनल वीलाई छोटे तथा म्यूकस मेम्ब्रेन की सतह से उभरे होते हैं । इनकी संख्या डियोडिनम और ज्यूजेनम में इलियम की अपेक्षा अधिक होती है । 

लार ग्रन्थियां:

 लार ग्रन्थियां:  

पाचन तंत्र के अंतर्गत तीन जोड़े लार ग्रन्यियां पायी जाती हैं । ये पैरोटिड, सब-मैन्डिबुलर और सब-लिंगुअल हैं । इनको चित्र 3.34 में दर्शाया गया है । ये ग्रन्थियां लार का निर्माण करती हैं । जो इनकी नलिकाओं द्वारा मुंह में पहुंचती हैं । ग्रास नली लगभग 25 से॰मी॰ लम्बी होती है । यह ऊपर कण्ठ में तथा नीचे आमाशय में खुलती है ।


यह गरदन में छठीं सरवाइकल वर्टिब्रा से शुरू होती है जहां यह लैरिगोफैरिक्स में खुलती है । डायफ्राम से निकलने के बाद यह कार्डियक ओरिफिस के द्वारा 11 वीं थोरेसिक वर्टीब्रा के स्थान पर यह आमाशय में खुलती है । इस विभिन्न संबंधों को चित्र 3.35 में दर्शाया गया है ।


ग्रास नली का छिद्र पूरी लम्बाई में समान न होकर तीन स्थानों पर सिकुड़ा होता है जैसे इसके शुरू होने के स्थान पर, बांयी मुख्य श्वास नलिका से सम्पर्क के स्थान पर और डायफ्राम से निकलते समय । 



आमाशय:


यह पाचन नलिका का सबसे फैला हुआ भाग है (चित्र 3.36 क) । यह उदर के बायें हाइपोकान्ड्रीयम, इपीगेसट्रियम और अम्बलाइकल भागों में स्थित होता है । यह ऊपर की ओर कार्डियक ओरिफिस द्वारा ग्रास नली में तथा पायलोरिक छिद्र द्वारा ड्‌यूडीनम में खुलता है । पायलोरिक ओरिफिस अरेखीय पेशियों द्वारा चारों ओर से ढका रहता है जिसे पायलोरिक स्फिक्टर कहते हैं ।


 


 


कार्डियक ओरिफिस को डायफ्राम के दायें क्रस के तंतु दबाते हैं जिससे आमाशय में स्थित पदार्थ वापस ग्रास नली में नहीं जा पाते हैं । इसका आयतन एक सामान्य वयस्क में 1000-1500 सी॰ सी॰ होता है । यह मुख्य रूप से बेरियम मील पर ‘J’ के आकार का होता है । यद्यपि यह अन्य आकार का भी हो सकता है । (चित्र 3.36 ख)




आगे की ओर आमाशय डायफ्राम, बांयी कास्टल मार्जिन, यकृत का बांया लोब और उदर की अगली दीवार से सम्बन्धित होता है । पीछे की ओर यह डायफ्राम बांयी सुप्रा रीनल ग्रन्थि, बायें गुर्दे, पेन्क्रियाज, स्पलीनिक धमनी, ट्रांसवर्स मीजोकोलन (चित्र 3.37), ट्रांसवर्स कोलन का बांया भाग, कोलन का स्पलीनिक फ्लेक्सर और प्लीहा से सम्बन्धित होता है । इन भागों को प्राय :: स्टमक बेड कहा जाता है ।


मुंह और ग्रास नली:

 मुंह और ग्रास नली: 

मुंह या ओरल कैवटी को बाहरी वेस्टीब्यूल तथा अंदर के माउथ कैवटी प्रापर नामक दो भागों में बांटा जा सकता है । माउथ कैवटी प्रापर आगे तथा दोनों ओर दांतों व मसूढ़ों से घिरा होता है । पीछे की ओर यह ओरोफैरेन्जियल इस्थमस द्वारा कण्ठ में खुलता है । इस्थमस की बगल की सतह में दो म्यूकस मेम्ब्रेन के फोल्ड होते हैं जिनमें लिम्फोयड टिशू स्थित होता है तथा पैलेटाइन टांसिल कहलाता है ।


मुंह की छत का निर्माण अस्थि पैलेट तथा पीछे की ओर साफ्ट पैलेट से होता है । इसका पिछला भाग उभरा हुआ होता है, जिसे युवला कहते हैं । जीभ का अगला भाग इसकी फ्लोर बनाता है । मायलोहायड पेशी मैण्डीबल की आर्चो के बीच पेशीय डायफ्राम बनाती है ।


ओठ दो मासल फोल्ड होते हैं जो मुंह के आगे के छेद के चारों ओर स्थित होते हैं । यह आर्बीकुलेरिस ओरिस पेशी से बने होते हैं जो बाहर से त्वचा से तथा अन्दर से म्यूकस मेम्ब्रेन द्वारा ढकी होती हैं । गाल मुंह के वेस्टिव्यूल की बगल की सतह बनाते हैं ।


वह आगे की ओर ओठों से जुड़े होते हैं तथा इनका निर्माण मुख्य रूप से बक्सीनेटर पेशी से होता है । जीभ एक पेशीय अंग है जिसका कुछ भाग मुंह तथा कण्ठ में स्थित होता है ।  यह स्वाद में, बोलने मे तथा निगलने में महत्वपूर्ण है । दांत मैक्सिला और मैण्डिबल के एल्विओलर प्रोसेस के साकेट में स्थित होते हें ।



दांत दो बार निकलते हैं । दूध के दांत व स्थायी दांत । दूध के दांत संख्या में 20 होते हैं तथा स्थायी दांत संख्या में 32 होते हैं । जिनमें दो इन्साइजर, 1 कैनाइन 2 प्रीमोलर तथा 3 मोलर प्रत्येक जबड़े के आधे भाग में होते है

आइएं जानें अपने पाचन तंत्र को ग्रासनली (Esophagus)

 आइएं जानें अपने पाचन तंत्र को 

ग्रासनली (Esophagus)


    ग्रासनली लगभग 25 सेमि. (10 इंच) लम्बी तथा लगभग 2 सेमी चौड़ी एक संकरी पेशीय नली होती है जो मुख के पीछे गलकोष से आरंभ होती है, वक्ष से थोरेसिक डायफ्राम (Thoracic Diaphragm) से गुजरती है और उदर स्थित ह्रदय द्वारा पर जाकर समाप्त होती है।

    ग्रासनली की दीवार पतली मांसपेशियों की दो परतो की बनी होती है।

    ग्रासनली के शीर्ष पर उत्तकों का एक पल्ला होता है जिसे एपिग्लॉटिस (Epiglottis) कहते है जो निगलने के दौरान ऊपर बंद हो जाता है जिससे भोजन श्वासनली में प्रवेश न कर सके।

    चबाया गया भोजन इन्ही पेशियों के क्रमाकुंचन के द्वारा ग्रासनली से होकर उदर तक धकेल दिया जाता है।

    ग्रासनली से भोजन को गुजरने में केवल सात सेकंड लगते है और इस दौरान पाचन क्रिया नही होती।


आमाशय (Stomach)


    आमाशय, ग्रासनली तथा डर्योड़ीनस के बीच, डायफ्राम के नीचे, प्लीहा के दायेओर तथा आंशिक रूप से यकृत पोषण-नली (भोजन-नली) का थैलीनुमा भाग होता है।

    इसका अधिकांश (लगभग 5/6) भाग शरीर की मध्य रेखा के बायीं ओर तथा शेष भाग दायी ओर स्थित होता है।

    इसके आगे यकृत का बांया खण्ड तथा अग्र उदरीय भित्ति होती है।

    इसके पीछे उदरीय महाधमनी, अग्न्याशय, प्लीहा या तिल्ली, बायाँ वृक्क एव एड्रिनल ग्रंथि स्थिर होती है।

    इसके ऊपर डायफ्राम, ग्रासनली तथा यकृत का बायाँ खण्ड होता है।

    नीचे बड़ी आँत की अनुप्रस्थ कोलन होती है तथा छोटी आँत होती है।

    इसके बायीं ओर डायफ्राम और प्लीहा तथा दायी ओर यकृत और डर्योड़ीनस होता है।

    यह फण्डस अथवा ऊपरी गोल भाग, एक काय या बीच के भाग तथा जठर-निर्गम या पाइलोरस अथवा दूरस्थ छोटे भाग से मिलकर बना होता है।यह जठर-रस स्त्रवित करता है जो भोजन के साथ मिश्रित होकर आँतो के द्वारा आगे पाचन के लिए उपयुक्त्त काइम, एक अर्द्धठोस पदार्थ बनाता है।


मस्तिष्क तथा व्यवहार मस्तिष्क तथा व्यवहार (Brain and Behaviour):

 मस्तिष्क तथा व्यवहार  

मस्तिष्क तथा व्यवहार (Brain and Behaviour):


मस्तिष्क हमारे शरीर में मुख्य नियन्त्रक का कार्य करता है । यह तन्त्रिका ऊतकों (Nervous Tissue) का बना एक कोमल एवं खोखला अंग होता है । यह खोपड़ी की कपाल गुहा (Ganial Cavity) में सुरी क्षत बन्द रहता है इसे सहारा देने और बाहरी आघातो दबावों आदि से सुरक्षा करने हेतु तीन झिल्लियों का आवरण होता है ।


बाहर से भीतर की ओर ये निम्नलिखित होती हैं:


(1) दृढ़तानिका या ड्यूरामेटर (Duramatter):


कपाल गुहा के चारों ओर की अस्थियों पर मढी, मोटी, दृढ़ एवं लोच विहीन, सबसे बाहरी झिल्ली होती है । इसमें कोलैजन तन्तुओं की ज्यादा संख्या पायी जाती है ।


(2) जालतानिका या ऐरेक्नाऐड (Arachnoid):


यह आवरण मध्य में पाया जाता है । इसमें रक्त नलिकाएँ अनुपस्थित होती हैं लेकिन इसमें महीन जाली पायी जाती है इससे तथा दृढ़तानिका के बीच सँकरे खाली स्थान में एक तरल भरा रहता है जो दोनों तानिकाओं को नम बनाकर रखता है ।


(3) मृदुतानिका या पाइमेटर (Piamatter):


यह मस्तिष्क पर चढी हुई सबसे भीतर की ओर तथा कोमल झिल्ली होती है । इसके अनेक महीन कण रक्त नलिकाओ के जाल फैला देता है मस्तिष्क की गुहा में कुछ क्षारीयसा द्रव भरा रहता है यह द्रव मस्तिष्क को सहारा देता है इसे नम बनाये रखता है । इस द्रव को सेरीब्रोस्पाइनल द्रव (Cerebrospinal Fluid) कहते हैं ।


मस्तिष्क की बाहरी संरचना (Outer Structure of Brain):


मानव में सबसे ज्यादा विकसित मस्तिष्क पाया जाता है । इसका आकार भी बहुत बड़ा होता है इसमें अन्य सभी जानवरों के मुकाबले सोचने-समझने की क्षमता पायी जाती है । मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जाता है । 

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions):

 प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions): 

वातावरण के परिवर्तन के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ व अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ । ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना एवं इच्छा के अनुसार सुनियोजित एवं सउद्देश्य होती हैं । अत: इन पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है जैसे – भोजन करना, भागना, चलना इत्यादि । इसके विपरीत अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना शक्ति के अधीन नहीं होती हैं ।


अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं – प्रतिक्षेप या प्रतिवर्ती (Reflex) व स्वायत्त (Autonomic) । प्रतिवर्ती क्रियाएँ प्राय: स्पाइनल तन्त्रिकाओं द्वारा सम्यता होती है; जैसे – पकवान देखकर मुँह में पानी आना, आंखों के आगे अचानक किसी वस्तु के आ जाने पर या तेज प्रकाश पड़ने पर पलकों का झपकना इत्यादि । यह सब अनैच्छिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं ।


प्रतिवर्ती क्रिया बहुत जल्दी होती हैं क्योंकि मेरुरज्जु संवेदी सूचनाओं को एक दर्पण की भांति ज्यों-की-त्यों तुरन्त चालक प्रेरणाओं के रूप में लौटा देता है । इसलिए इन्हें प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहा जाता है । यह भी दो प्रकार की होती हैं- अबन्धित तथा अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ । 



(i) अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditional Reflexes):


ये वंशगत प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं जिन्हें मनुष्य इच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकता है; जैसे- खानदानी गायक आदि होना ।


(ii) अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditional Reflexes):


ये क्रियाएँ प्रशिक्षण द्वारा होने लगती हैं । प्रारम्भ में इन क्रियाओं पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है, लेकिन बाद में भली- भांति स्थापित हो जाने पर यह आदत बन जाती हैं; जैसे – नाचना, साइकिल चलाना, तैरना, खेलना आदि । 

तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:

 तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन 

तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:


(1) कोशिका पिण्ड:


यह कोशिका का ऊपरी भाग होता है इसी भाग मे केन्द्रक होता है । कोशिका पिण्ड के भाग से अनेक तन्तु निकलते हैं जिन्हें ‘पार्श्वतन्तु’ (Dendrite) कहते हैं । इनकी पुन: उपशाखाएँ हो जाती हैं । ये शाखाएँ वास्तव में जीवद्रव्य के निचले भाग होते हैं जिनके ऊपर की ओर झिल्ली रहती है नीचे की ओर निकली लम्बी शाखा कोशिका का दूसरा भाग होता है, इसे हम अक्ष तन्तु (Axon) कहते हैं ।


(2) अक्ष तन्तु (Axon):


यह झिल्ली के नीचे की ओर से निकलती पतले-पतले ब्रुश के समान होते हैं । इन्हें (End Brush) कहते हैं । इन्हीं की सहायता द्वारा तन्त्रिका कोशिका एक चैन के समान जुड़ी रहती है । तन्त्रिका कोशिका भूरे रंग की होती है । तन्त्रिका कोशिका से निकलने वाले तन्तु सफेद रंग के होते हैं, जिन्हें ऊतक भी कहा जाता है ।


तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु सन्देश ग्रहण करते हैं । यह सन्देश को दूसरी तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु में पहुँचाते हैं । इस प्रकार न्यूरॉन की चेन द्वारा संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाता है । दो न्यूरॉन के बीच जो दूरी होती है, उसे साइनैप्स कहते हैं । 




युग्मानुबन्ध (Synapsis):


लगभग 100 अरब वर्ष पूर्व से ही मनुष्य में पृथक् तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं । प्रत्येक तन्त्रिका कोशिकाओं का अक्ष तन्तु स्वतन्त्र छोर पर अनेक छोटीछोटी शाखाओं में बँटा होता है जो निकटवर्ती तन्त्रिका के डेन्टाइट्स पर फैला रहता है ।


इन शाखाओं के स्वतन्त्र छोर घुण्डीनुमा होते हैं, इनके और उन रचनाओं के बीच जिन पर ये फैली रहती हैं, प्राय: कोई भौतिक स्पर्श नहीं होता है वरन् दोनों के बीच एक सँकरा तरल से भरा बन्द-सा स्थान बचा रहता है, जिसे सिनैप्टिक विदर (Synaptic Cleft) कहते हैं । इसी सन्धि स्थानों को युग्मानुबन्ध (Synapsis) कहते हैं ।


शरीर की अधिकांश तन्त्रिका कोशिकाओं को दो भागों में बाँटा जाता है:


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells);


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells) |


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells):


सन्देशवाहक में वे तन्त्रिकाएँ होती हैं जो कि बाहरी जगत की उत्तेजनाओं से प्रभावित होती हैं जिसके कारण इनमें संवेदना उत्पन्न होती है । उस संवेदना के कारण प्राप्त सूचना को ये तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क व सुषुम्ना में पहुँचाती हैं । हमारे शरीर में सन्देश अंग आँख, नाक और कान होते हैं ।


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells):


चालक तन्त्रिकाएँ मुख्यत: मस्तिष्क से प्रेरणाओं को प्रतिक्रियाओं को करने वाली पेशी या अस्थि कोशिकाओं में पहुँचाती हैं चालक तन्त्रिकाएँ आँख, नाक, स्वर यन्त्र व जीभ आदि अंगों में पायी जाती हैं । 


इसके निम्न तीन भाग होते है .ग्रहणी या ड्योडीनम (Duodenum

 इसके निम्न तीन भाग होते है 

.ग्रहणी या ड्योडीनम (Duodenum)


    यह छोटी आँत का प्रथम भाग होता है जो पाइलोरस से जेजुनम तक फैला होता है।

    यह घोड़े के नाल (अंग्रेजी के c अक्षर)आकर का लगभग 25 सेमी (10 इंच) लम्बा होता है जो अग्न्याशय या पैंक्रियाज के शीर्ष को चारो ओर से घेरे होता है।

    पाइलोरस से लगभग 10 सेमी की दुरी पर एक उभय छिद्र, वेटर की कलाशिका या एम्पुला अॉफ वेटर में सामान्य पित्त वाहिनी, दोनों आकर खुलती है।

    यह संकोचिनी जैसी पेशियों से घिरा रहता है।


2. मध्यान्त्र या जेजुनम (Jejunum)


    यह छोटी आँतशेष भाग का ऊपरी 2/5 भाग होता, और लगभग 2.5 मीटर (8 फीट) लम्बा होता है।

    इसका ऊपरी सिरा ड्योडीनम जुड़ा होता है।


3.शेषान्त्र या इलियम (Ileum)


    यह छोटी आँत का निचला मध्यान्त्र या जेजुनम से लेकर अन्धान्त्र या सिकम तक का भाग जो लगभग 3.5 मिटर लम्बा भाग होता है और इलियोसीकल कपाट पर इसका अंत होता है जो इलियम से बड़ी आँत में भोजन के प्रवाह पर नियंत्रण रखता है और सिकम के पदार्थो को वापस इलियम में आने से रोकता है।

    जेजुनम और इलियम के बीच कोई स्पष्ट सीमा निर्धारित नही है छोटी आँत के जेजुनम एवं इलियम दोनों भाग उदरावरण या पैरिटोनियम की एक मुड़ी हुई तह, जिसे मिजेन्ट्री कहते है, के द्वारा उदर की पशच भित्ति से लटके रहते है।


बड़ी आँत --वृहदांत्र(Large Intestine or Colon)


    यह आँत का दूरस्थ भाग होता है जो लगभग 5 फिट लम्बा और छोटी आँत के साथ अपने संगम से गुदा तक विस्तृत होता है तथा अन्धान्त्र के उण्डुकपुच्छ, कोलन, मलाशय और गुदा-नली से मिलकर बनता है। 

    संपूर्ण बड़ी आँत को वृहदांत्र या कोलन भी कहा जाता है ।


वृहदांत्र तीन भागों में विभाजित होता है- आरोही, अनुप्रस्थ एवं अवरोही भाग। 

अवरोही भाग मलाशय में खुलता है जो मलद्वार (anus) द्वारा बाहर खुलता है।

इसके निम्न सात भाग होते है:


    आन्धान्त्र या सीकम : यह बड़ी आँत का शुरू का फूला हुआ भाग होेता है जो छोटी आँत के अंत में होता है। यह दाहिने इलिअक फोसा में स्थित होत है। यह चौड़ी होती है तथा निचला सिरा अंधसिरा होता है। ऊपर की ओर यह आरोही कोलन से जुड़ी रहती है। इलिआम का प्रवेश इसमें एक ओर से होता है। सिकम से इलियोसिकल वाल्व के नीचे से संकरी अन्धनली संलग्न रहती है, जिसे उण्डुकपुच्छ या वर्मीफॉम एपैन्डिक्स कहा जाता है। इसकी रचना बड़ी आँत की भित्तियों की रचना के समान ही होती है परंतु इसमें लसीकाभ ऊतक अधिक होता है। एपेण्डिक्स के शोथ की दशा को एपैनडिस्क कहते है।

    आरोही कोलन : यह बड़ी आँत का सिकम से ऊपर को जाने वाला भाग होता है जो यकृत के पास तक पहुँच कर एकदम से बायीं ओर को मुरकर अनुप्रस्थ कोलन में विलीन हो जाता है। कोलन का यह मोड़ दहिंना कॉलीक या हिपेटीक वंक कहलाता है।

    अनुप्रस्थ कोलन : उदर गुहा को दाए से बायीं ओर पर करते हुए प्लीहा या तिल्ली तक पहुँचती है और प्लीहा के निचे एक दम मुड़ कर अवरोही कोलन में विलीन हो जाती है। बड़ी आँत के इस मोड़ को बाया कोलिक या प्लीहज वंक कहते है।

    अवरोही कोलन (Descending Colon): अवरोही कोलन उदर गुहा के बायीं ओर से निचे की ओर बढ़कर वास्तविक श्रोणि में जाती है और सिग्मायड कोलन कहलाती है।

    सिगमॉयड कोलन (Sigmoid Colon): श्रोणि के बाये श्रोणिफलकीय क्षेत्र में स्थित बड़ी आँत का अवरोही कोलन से मलाशय तक का अंग्रेजी के अक्षर 's' के आकार का लम्बा भाग होता है।

    मलाशय या रेक्टम (Rectum): मलाशय सिगमॉयड कोलन से ऊपर की ओर जुड़ा रहता है। यह लगभग 12 सेमी लम्बा होता है और श्रोणीय डायफाम से गुजरकर गुदानली बनाता है। इसकी रचना कोलन की रचना के समान होता है, परंतु इसकी पेशीय परत अधिक मोती होती है। मलाशय के श्लेष्मिक अस्तर में 8-10 लम्बरूप तथा 2-3 अनुपस्थ वलय पाए जाते है। लंबरूप वलयो को मोगैगनाई के स्तम्भ कहते है।

    गुदीय नली : गुदीय नली मलाशय से बाहर को खुलने वाली एक छोटी नली होती है। मलाशय के लम्बरूप वलय निचे गुदीय नली में को चले जाते है यहाँ पर अनैच्छिक वृत्ताकार पेशीय तंतु मोटे हो जाते है और आन्तरिक गुदीय संकोचनी का निर्माणी करते है

आइएं जानें अपने पाचन तंत्र को

 आइएं जानें अपने पाचन तंत्र को 

ग्रासनली (Esophagus)


    ग्रासनली लगभग 25 सेमि. (10 इंच) लम्बी तथा लगभग 2 सेमी चौड़ी एक संकरी पेशीय नली होती है जो मुख के पीछे गलकोष से आरंभ होती है, वक्ष से थोरेसिक डायफ्राम (Thoracic Diaphragm) से गुजरती है और उदर स्थित ह्रदय द्वारा पर जाकर समाप्त होती है।

    ग्रासनली की दीवार पतली मांसपेशियों की दो परतो की बनी होती है।

    ग्रासनली के शीर्ष पर उत्तकों का एक पल्ला होता है जिसे एपिग्लॉटिस (Epiglottis) कहते है जो निगलने के दौरान ऊपर बंद हो जाता है जिससे भोजन श्वासनली में प्रवेश न कर सके।

    चबाया गया भोजन इन्ही पेशियों के क्रमाकुंचन के द्वारा ग्रासनली से होकर उदर तक धकेल दिया जाता है।

    ग्रासनली से भोजन को गुजरने में केवल सात सेकंड लगते है और इस दौरान पाचन क्रिया नही होती।


आमाशय (Stomach)


    आमाशय, ग्रासनली तथा डर्योड़ीनस के बीच, डायफ्राम के नीचे, प्लीहा के दायेओर तथा आंशिक रूप से यकृत पोषण-नली (भोजन-नली) का थैलीनुमा भाग होता है।

    इसका अधिकांश (लगभग 5/6) भाग शरीर की मध्य रेखा के बायीं ओर तथा शेष भाग दायी ओर स्थित होता है।

    इसके आगे यकृत का बांया खण्ड तथा अग्र उदरीय भित्ति होती है।

    इसके पीछे उदरीय महाधमनी, अग्न्याशय, प्लीहा या तिल्ली, बायाँ वृक्क एव एड्रिनल ग्रंथि स्थिर होती है।

    इसके ऊपर डायफ्राम, ग्रासनली तथा यकृत का बायाँ खण्ड होता है।

    नीचे बड़ी आँत की अनुप्रस्थ कोलन होती है तथा छोटी आँत होती है।

    इसके बायीं ओर डायफ्राम और प्लीहा तथा दायी ओर यकृत और डर्योड़ीनस होता है।

    यह फण्डस अथवा ऊपरी गोल भाग, एक काय या बीच के भाग तथा जठर-निर्गम या पाइलोरस अथवा दूरस्थ छोटे भाग से मिलकर बना होता है।यह जठर-रस स्त्रवित करता है जो भोजन के साथ मिश्रित होकर आँतो के द्वारा आगे पाचन के लिए उपयुक्त्त काइम, एक अर्द्धठोस पदार्थ बनाता है।


मस्तिष्क तथा व्यवहार

 मस्तिष्क तथा व्यवहार  

मस्तिष्क तथा व्यवहार (Brain and Behaviour):


मस्तिष्क हमारे शरीर में मुख्य नियन्त्रक का कार्य करता है । यह तन्त्रिका ऊतकों (Nervous Tissue) का बना एक कोमल एवं खोखला अंग होता है । यह खोपड़ी की कपाल गुहा (Ganial Cavity) में सुरी क्षत बन्द रहता है इसे सहारा देने और बाहरी आघातो दबावों आदि से सुरक्षा करने हेतु तीन झिल्लियों का आवरण होता है ।


बाहर से भीतर की ओर ये निम्नलिखित होती हैं:


(1) दृढ़तानिका या ड्यूरामेटर (Duramatter):


कपाल गुहा के चारों ओर की अस्थियों पर मढी, मोटी, दृढ़ एवं लोच विहीन, सबसे बाहरी झिल्ली होती है । इसमें कोलैजन तन्तुओं की ज्यादा संख्या पायी जाती है ।


(2) जालतानिका या ऐरेक्नाऐड (Arachnoid):


यह आवरण मध्य में पाया जाता है । इसमें रक्त नलिकाएँ अनुपस्थित होती हैं लेकिन इसमें महीन जाली पायी जाती है इससे तथा दृढ़तानिका के बीच सँकरे खाली स्थान में एक तरल भरा रहता है जो दोनों तानिकाओं को नम बनाकर रखता है ।


(3) मृदुतानिका या पाइमेटर (Piamatter):


यह मस्तिष्क पर चढी हुई सबसे भीतर की ओर तथा कोमल झिल्ली होती है । इसके अनेक महीन कण रक्त नलिकाओ के जाल फैला देता है मस्तिष्क की गुहा में कुछ क्षारीयसा द्रव भरा रहता है यह द्रव मस्तिष्क को सहारा देता है इसे नम बनाये रखता है । इस द्रव को सेरीब्रोस्पाइनल द्रव (Cerebrospinal Fluid) कहते हैं ।


मस्तिष्क की बाहरी संरचना (Outer Structure of Brain):


मानव में सबसे ज्यादा विकसित मस्तिष्क पाया जाता है । इसका आकार भी बहुत बड़ा होता है इसमें अन्य सभी जानवरों के मुकाबले सोचने-समझने की क्षमता पायी जाती है । मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जाता है । 

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions):

 प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions): 

वातावरण के परिवर्तन के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ व अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ । ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना एवं इच्छा के अनुसार सुनियोजित एवं सउद्देश्य होती हैं । अत: इन पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है जैसे – भोजन करना, भागना, चलना इत्यादि । इसके विपरीत अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना शक्ति के अधीन नहीं होती हैं ।


अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं – प्रतिक्षेप या प्रतिवर्ती (Reflex) व स्वायत्त (Autonomic) । प्रतिवर्ती क्रियाएँ प्राय: स्पाइनल तन्त्रिकाओं द्वारा सम्यता होती है; जैसे – पकवान देखकर मुँह में पानी आना, आंखों के आगे अचानक किसी वस्तु के आ जाने पर या तेज प्रकाश पड़ने पर पलकों का झपकना इत्यादि । यह सब अनैच्छिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं ।


प्रतिवर्ती क्रिया बहुत जल्दी होती हैं क्योंकि मेरुरज्जु संवेदी सूचनाओं को एक दर्पण की भांति ज्यों-की-त्यों तुरन्त चालक प्रेरणाओं के रूप में लौटा देता है । इसलिए इन्हें प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहा जाता है । यह भी दो प्रकार की होती हैं- अबन्धित तथा अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ । 



(i) अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditional Reflexes):


ये वंशगत प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं जिन्हें मनुष्य इच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकता है; जैसे- खानदानी गायक आदि होना ।


(ii) अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditional Reflexes):


ये क्रियाएँ प्रशिक्षण द्वारा होने लगती हैं । प्रारम्भ में इन क्रियाओं पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है, लेकिन बाद में भली- भांति स्थापित हो जाने पर यह आदत बन जाती हैं; जैसे – नाचना, साइकिल चलाना, तैरना, खेलना आदि । 

तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन

 तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन 

तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:


(1) कोशिका पिण्ड:


यह कोशिका का ऊपरी भाग होता है इसी भाग मे केन्द्रक होता है । कोशिका पिण्ड के भाग से अनेक तन्तु निकलते हैं जिन्हें ‘पार्श्वतन्तु’ (Dendrite) कहते हैं । इनकी पुन: उपशाखाएँ हो जाती हैं । ये शाखाएँ वास्तव में जीवद्रव्य के निचले भाग होते हैं जिनके ऊपर की ओर झिल्ली रहती है नीचे की ओर निकली लम्बी शाखा कोशिका का दूसरा भाग होता है, इसे हम अक्ष तन्तु (Axon) कहते हैं ।


(2) अक्ष तन्तु (Axon):


यह झिल्ली के नीचे की ओर से निकलती पतले-पतले ब्रुश के समान होते हैं । इन्हें (End Brush) कहते हैं । इन्हीं की सहायता द्वारा तन्त्रिका कोशिका एक चैन के समान जुड़ी रहती है । तन्त्रिका कोशिका भूरे रंग की होती है । तन्त्रिका कोशिका से निकलने वाले तन्तु सफेद रंग के होते हैं, जिन्हें ऊतक भी कहा जाता है ।


तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु सन्देश ग्रहण करते हैं । यह सन्देश को दूसरी तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु में पहुँचाते हैं । इस प्रकार न्यूरॉन की चेन द्वारा संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाता है । दो न्यूरॉन के बीच जो दूरी होती है, उसे साइनैप्स कहते हैं । 




युग्मानुबन्ध (Synapsis):


लगभग 100 अरब वर्ष पूर्व से ही मनुष्य में पृथक् तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं । प्रत्येक तन्त्रिका कोशिकाओं का अक्ष तन्तु स्वतन्त्र छोर पर अनेक छोटीछोटी शाखाओं में बँटा होता है जो निकटवर्ती तन्त्रिका के डेन्टाइट्स पर फैला रहता है ।


इन शाखाओं के स्वतन्त्र छोर घुण्डीनुमा होते हैं, इनके और उन रचनाओं के बीच जिन पर ये फैली रहती हैं, प्राय: कोई भौतिक स्पर्श नहीं होता है वरन् दोनों के बीच एक सँकरा तरल से भरा बन्द-सा स्थान बचा रहता है, जिसे सिनैप्टिक विदर (Synaptic Cleft) कहते हैं । इसी सन्धि स्थानों को युग्मानुबन्ध (Synapsis) कहते हैं ।


शरीर की अधिकांश तन्त्रिका कोशिकाओं को दो भागों में बाँटा जाता है:


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells);


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells) |


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells):


सन्देशवाहक में वे तन्त्रिकाएँ होती हैं जो कि बाहरी जगत की उत्तेजनाओं से प्रभावित होती हैं जिसके कारण इनमें संवेदना उत्पन्न होती है । उस संवेदना के कारण प्राप्त सूचना को ये तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क व सुषुम्ना में पहुँचाती हैं । हमारे शरीर में सन्देश अंग आँख, नाक और कान होते हैं ।


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells):


चालक तन्त्रिकाएँ मुख्यत: मस्तिष्क से प्रेरणाओं को प्रतिक्रियाओं को करने वाली पेशी या अस्थि कोशिकाओं में पहुँचाती हैं चालक तन्त्रिकाएँ आँख, नाक, स्वर यन्त्र व जीभ आदि अंगों में पायी जाती हैं । 


मस्तिष्क तथा व्यवहार

 मस्तिष्क तथा व्यवहार  

मस्तिष्क तथा व्यवहार (Brain and Behaviour):


मस्तिष्क हमारे शरीर में मुख्य नियन्त्रक का कार्य करता है । यह तन्त्रिका ऊतकों (Nervous Tissue) का बना एक कोमल एवं खोखला अंग होता है । यह खोपड़ी की कपाल गुहा (Ganial Cavity) में सुरी क्षत बन्द रहता है इसे सहारा देने और बाहरी आघातो दबावों आदि से सुरक्षा करने हेतु तीन झिल्लियों का आवरण होता है ।


बाहर से भीतर की ओर ये निम्नलिखित होती हैं:


(1) दृढ़तानिका या ड्यूरामेटर (Duramatter):


कपाल गुहा के चारों ओर की अस्थियों पर मढी, मोटी, दृढ़ एवं लोच विहीन, सबसे बाहरी झिल्ली होती है । इसमें कोलैजन तन्तुओं की ज्यादा संख्या पायी जाती है ।


(2) जालतानिका या ऐरेक्नाऐड (Arachnoid):


यह आवरण मध्य में पाया जाता है । इसमें रक्त नलिकाएँ अनुपस्थित होती हैं लेकिन इसमें महीन जाली पायी जाती है इससे तथा दृढ़तानिका के बीच सँकरे खाली स्थान में एक तरल भरा रहता है जो दोनों तानिकाओं को नम बनाकर रखता है ।


(3) मृदुतानिका या पाइमेटर (Piamatter):


यह मस्तिष्क पर चढी हुई सबसे भीतर की ओर तथा कोमल झिल्ली होती है । इसके अनेक महीन कण रक्त नलिकाओ के जाल फैला देता है मस्तिष्क की गुहा में कुछ क्षारीयसा द्रव भरा रहता है यह द्रव मस्तिष्क को सहारा देता है इसे नम बनाये रखता है । इस द्रव को सेरीब्रोस्पाइनल द्रव (Cerebrospinal Fluid) कहते हैं ।


मस्तिष्क की बाहरी संरचना (Outer Structure of Brain):


मानव में सबसे ज्यादा विकसित मस्तिष्क पाया जाता है । इसका आकार भी बहुत बड़ा होता है इसमें अन्य सभी जानवरों के मुकाबले सोचने-समझने की क्षमता पायी जाती है । मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जाता है । 

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions):

 प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions): 

वातावरण के परिवर्तन के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ व अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ । ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना एवं इच्छा के अनुसार सुनियोजित एवं सउद्देश्य होती हैं । अत: इन पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है जैसे – भोजन करना, भागना, चलना इत्यादि । इसके विपरीत अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना शक्ति के अधीन नहीं होती हैं ।


अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं – प्रतिक्षेप या प्रतिवर्ती (Reflex) व स्वायत्त (Autonomic) । प्रतिवर्ती क्रियाएँ प्राय: स्पाइनल तन्त्रिकाओं द्वारा सम्यता होती है; जैसे – पकवान देखकर मुँह में पानी आना, आंखों के आगे अचानक किसी वस्तु के आ जाने पर या तेज प्रकाश पड़ने पर पलकों का झपकना इत्यादि । यह सब अनैच्छिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं ।


प्रतिवर्ती क्रिया बहुत जल्दी होती हैं क्योंकि मेरुरज्जु संवेदी सूचनाओं को एक दर्पण की भांति ज्यों-की-त्यों तुरन्त चालक प्रेरणाओं के रूप में लौटा देता है । इसलिए इन्हें प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहा जाता है । यह भी दो प्रकार की होती हैं- अबन्धित तथा अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ । 



(i) अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditional Reflexes):


ये वंशगत प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं जिन्हें मनुष्य इच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकता है; जैसे- खानदानी गायक आदि होना ।


(ii) अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditional Reflexes):


ये क्रियाएँ प्रशिक्षण द्वारा होने लगती हैं । प्रारम्भ में इन क्रियाओं पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है, लेकिन बाद में भली- भांति स्थापित हो जाने पर यह आदत बन जाती हैं; जैसे – नाचना, साइकिल चलाना, तैरना, खेलना आदि । 

तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन

 तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन 

तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:


(1) कोशिका पिण्ड:


यह कोशिका का ऊपरी भाग होता है इसी भाग मे केन्द्रक होता है । कोशिका पिण्ड के भाग से अनेक तन्तु निकलते हैं जिन्हें ‘पार्श्वतन्तु’ (Dendrite) कहते हैं । इनकी पुन: उपशाखाएँ हो जाती हैं । ये शाखाएँ वास्तव में जीवद्रव्य के निचले भाग होते हैं जिनके ऊपर की ओर झिल्ली रहती है नीचे की ओर निकली लम्बी शाखा कोशिका का दूसरा भाग होता है, इसे हम अक्ष तन्तु (Axon) कहते हैं ।


(2) अक्ष तन्तु (Axon):


यह झिल्ली के नीचे की ओर से निकलती पतले-पतले ब्रुश के समान होते हैं । इन्हें (End Brush) कहते हैं । इन्हीं की सहायता द्वारा तन्त्रिका कोशिका एक चैन के समान जुड़ी रहती है । तन्त्रिका कोशिका भूरे रंग की होती है । तन्त्रिका कोशिका से निकलने वाले तन्तु सफेद रंग के होते हैं, जिन्हें ऊतक भी कहा जाता है ।


तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु सन्देश ग्रहण करते हैं । यह सन्देश को दूसरी तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु में पहुँचाते हैं । इस प्रकार न्यूरॉन की चेन द्वारा संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाता है । दो न्यूरॉन के बीच जो दूरी होती है, उसे साइनैप्स कहते हैं । 




युग्मानुबन्ध (Synapsis):


लगभग 100 अरब वर्ष पूर्व से ही मनुष्य में पृथक् तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं । प्रत्येक तन्त्रिका कोशिकाओं का अक्ष तन्तु स्वतन्त्र छोर पर अनेक छोटीछोटी शाखाओं में बँटा होता है जो निकटवर्ती तन्त्रिका के डेन्टाइट्स पर फैला रहता है ।


इन शाखाओं के स्वतन्त्र छोर घुण्डीनुमा होते हैं, इनके और उन रचनाओं के बीच जिन पर ये फैली रहती हैं, प्राय: कोई भौतिक स्पर्श नहीं होता है वरन् दोनों के बीच एक सँकरा तरल से भरा बन्द-सा स्थान बचा रहता है, जिसे सिनैप्टिक विदर (Synaptic Cleft) कहते हैं । इसी सन्धि स्थानों को युग्मानुबन्ध (Synapsis) कहते हैं ।


शरीर की अधिकांश तन्त्रिका कोशिकाओं को दो भागों में बाँटा जाता है:


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells);


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells) |


(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells):


सन्देशवाहक में वे तन्त्रिकाएँ होती हैं जो कि बाहरी जगत की उत्तेजनाओं से प्रभावित होती हैं जिसके कारण इनमें संवेदना उत्पन्न होती है । उस संवेदना के कारण प्राप्त सूचना को ये तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क व सुषुम्ना में पहुँचाती हैं । हमारे शरीर में सन्देश अंग आँख, नाक और कान होते हैं ।


(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells):


चालक तन्त्रिकाएँ मुख्यत: मस्तिष्क से प्रेरणाओं को प्रतिक्रियाओं को करने वाली पेशी या अस्थि कोशिकाओं में पहुँचाती हैं चालक तन्त्रिकाएँ आँख, नाक, स्वर यन्त्र व जीभ आदि अंगों में पायी जाती हैं । 


तन्त्रिका तन्त्र’ का परिचय

 तन्त्रिका तन्त्र’  का परिचय 

शरीर रूपी जटिल यन्त्र के विभिन्न यन्त्रों के कार्यों में सामजस्य उत्पन्न करने के लिए शरीर के अन्तर्गत एक विशेष तन्त्र रहता है, जिसे ‘तन्त्रिका तन्त्र’ कहते हैं । यह शरीर का महत्वपूर्ण तन्त्र है, क्योंकि यह शरीर के और सभी तन्त्रों पर नियन्त्रण का कार्य करता है ।


मनुष्य के शरीर में कई सस्थान होते हैं, और प्रत्येक संस्थान के अंग मिलकर उस कार्य को पूरा करते हैं । जैसे: मुँह, आमाशय, पक्वाशय, छोटी आँत, बड़ी आँत मिलकर पाचान संस्थान भोजन का पाचन, अभिशोषण, चयापचय का कार्य करता है । इसी तरह अन्य संस्थान भी अपना-अपना कार्य करते हैं । 



शनिवार, 13 दिसंबर 2025

मूत्राशय में सूजन

 मूत्राशय में सूजन 


 मूत्राशय (वह स्थान जहां पेशाब एकत्रित होता है) में संक्रमण या खून के ज्यादा होने से सूजन आ जाती है जिससे रोगी को पेशाब करने में कष्ट, दर्द और जलन होती है। इसके साथ ही रोगी में पेशाब बूंद-बूंद करके आना जैसे लक्षण प्रकट होते हैं।


विभिन्न औषधियों से उपचार-


1. तुलसी: तुलसी के पत्ते को मिश्री मिले शर्बत में घोंटकर बार-बार पीने से मूत्राशय की जलन के रोग में अच्छा लाभ होता है।


2. जंगली अजवायन: जंगली अजवायन का काढ़ा सिरका और शहद के साथ मिलाकर पीने से नाभि के नीचे की सूजन और दर्द ठीक होता है।


3. चन्दन: चन्दन के तेल की 5 से 15 बूंदे बताशे पर डालकर रोजाना 3 बार खाने मूत्राशय की जलन ठीक हो जाती है।


4. गुग्गुल: लगभग आधे से एक ग्राम की मात्रा में गुग्गुल को गुड़ के साथ लेने से सेवन करने से मूत्राशय की सूजन दूर हो जाती है।


5. लोबान: लगभग आधे से एक ग्राम लोबान को बादाम और गोंद के साथ सुबह-शाम लेने से पेशाब के रोग में लाभ होता है।


6. शिलारस: आधे से एक ग्राम शिलारस को गुलेठी के साथ सुबह-शाम लेने से मूत्राशय की सूजन और पेशाब की जलन दूर हो जाती है।


7. गठिबन (बनतुलसी): मूत्राशय की सूजन में गठिबन (बनतुलसी) के पत्तों को पीसकर लेप करने से लाभ होता है।


8. शीतलचीनी: मूत्राशय में सूजन होने पर आधे ग्राम शीतलचीनी के चूर्ण को दूध के साथ या आधा ग्राम फिटकिरी के साथ रोजाना 3 बार खाने से मूत्राशय की सूजन मिटती है। इसका लेप नाभि के नीचे करने से लाभ होता है।


9. छोटी गोखरू: छोटी गोखरू का काढ़ा सुबह-शाम लेने से मूत्राशय की सूजन में लाभ होता है।


10. अपराजिता: मूत्राशय की सूजन में अपराजिता की फांट या घोल को सुबह-शाम खाने से लाभ होता है।

मासिक-धर्म की अनियमितता

 मासिक-धर्म की अनियमितता


1. कलौंजी: लगभग आधा से डेढ़ ग्राम तक की मात्रा में कलौंजी के चूर्ण की फंकी लेने से मासिक-धर्म का कष्ट दूर होता है और मासिक-धर्म नियमित समय पर आता है।


2. अकरकरा: अकरकरा का काढ़ा बनाकर पीने से मासिक-धर्म समय पर होता है।


3. करेला: करेला के पत्तों के रस में सोंठ, कालीमिर्च और पीपल का चूर्ण मिलाकर पीने से मासिक-धर्म शुद्ध होता है।


4. केसर: केसर और अकरकरा की गोली बनाकर खाने से कष्टप्रद मासिक-धर्म ठीक होता है और मासिक-धर्म नियमित रूप से आने लगता है।


5. अरीठा: 3-4 अरीठों को पानी में पीसकर छोटी-छोटी गोलियां बनाकर रोगी को खिलाने से कष्टप्रद मासिक-धर्म शुद्ध होता है।


6. एलुवा: पेड़ू पर एलुवा का लेप करने से मासिक-धर्म ठीक हो जाता है।


7. नीम: नीम की छाल 4 ग्राम की मात्रा में लेकर 20 ग्राम गुड़ के साथ पानी में उबालें। जब आधा पानी रह जाए तब इसे उतारकर गुनगुना पीने से मासिक-धर्म की रुकावट दूर हो जाती है और मासिक-धर्म नियमित रूप से आने लगता है। 


8. अजवायन: 3 ग्राम अजवायन का चूर्ण गर्म दूध के साथ सेवन करने से रुका हुआ मासिक-धर्म नियमित रूप से आना शुरू हो जाता है।


9. चमेली: चमेली के पंचांग (जड़, तना, पत्ती, फल और फूल) का काढ़ा बनाकर पीने से मासिक-धर्म की रुकावट दूर हो जाती है और मासिक-धर्म नियमित रूप से आने लगता है। 


10. पीपल: पीपल की लकड़ी 4 ग्राम बारीक पीसकर दूध के साथ सेवन करने से मासिक-धर्म की रुकावट मिट जाती है और मासिक-धर्म की नियमित रूप से आने लगता है।


11. मूली: मूली के बीजों के चूर्ण को 3 ग्राम की मात्रा में देने से मासिक-धर्म की रुकावट मिटकर मासिक धर्म साफ होता है।


12. गाजर: यदि मासिक-धर्म न आता हो तो 2 चम्मच गाजर के बीज और 1 चम्मच गुड़ को 1 गिलास पानी में उबालकर रोजाना सुबह-शाम 2 बार गर्म-गर्म पियें तो इससे मासिक-धर्म में होने वाला दर्द भी दूर हो जाता है।

नष्टार्तव (मासिक-धर्म ``माहवारी`` बंद हो जाना)

 नष्टार्तव (मासिक-धर्म ``माहवारी`` बंद हो जाना)


रजोनिवृत्ति काल (समय) से पहले ही मासिक धर्म का रुकना नष्टार्तव (मासिक धर्म का रुकना) कहा जाता है। अर्थात महिलाओं का मासिक-धर्म का बंद हो जाना नष्टार्तव कहलाता है।


       यदि गर्भाशय का मुंह किसी एक ओर मुड़ जाता है तो भी रज:स्राव नहीं होता है।


       मासिक स्राव एक बार शुरू होने के बाद प्रत्येक 4 सप्ताह पर रजोनिवृत् की उम्र तक नियमित रूप से होता रहता है। गर्भावस्था में मासिक स्राव का रुकना स्वाभाविक होता है। अन्य समय में रुके तो गर्भाशय का विकार समझकर चिकित्सा करनी चाहिए।


कारण:   शरीर में खून की कमी, ठंड के कारण दोषों की विकृति से रक्त का गाढ़ा होना, गर्भाशय की नसों का मुंह बंद हो जाना, गर्भाशय में सूजन आना अथवा घावों का होना, गर्भाशय से रज निकलने के मार्ग में मस्सा उत्पन्न हो जाना, अधिक मोटापा तथा गर्भाशय के मुंह का किसी ओर घूम जाना और अधिक चिंता आदि कारणों से स्त्रियों का मासिक-धर्म अर्थात रज:स्राव बंद हो जाता है।


लक्षण:   सभी युवा महिलाएं प्रत्येक महीने रजस्वला होती है तथा उनकी योनि से 3 से 5 दिनों तक एक प्रकार का रक्त जिसे `रज` कहते हैं रिस-रिसकर निकला करता है। इसी को मासिकधर्म अथवा `रजोदर्शन` अथवा ऋतुस्राव आदि नामों से जाना जाता है। रजोदर्शन का समय आमतौर पर बालिकाओं में 12 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होता है तथा लगभग 45 से 50 वर्ष की आयु में समाप्त हो जाता है। रजोधर्म के बाद 16 दिनों तक गर्भाशय का मुंह खुला रहता है। इस अवधि में मैथुन करने से गर्भ स्थिति होने की संभावना बनी रहती है। इसके बाद गर्भ नहीं ठहरता है। रज:स्राव बंद होने के 16 दिन बाद तक स्त्री को ऋतुमती कहा जाता है। 


भोजन और परहेज:      कष्टार्तव (मासिकस्राव का कष्ट के साथ आना) व नष्टार्तव के रोगी के लिए छाछ (मट्ठा), दही, कांजी व मछली का सेवन हानिकारक होता है। अत: इसका सेवन करना नहीं करना चाहिए।


विभिन्न औषधियों से उपचार-


1. बीजक : लगभग 6 से 12 ग्राम बीजक लकड़ी का लुगदी ठण्डे पानी के साथ दिन में 2 बार सेवन करने से बंद मासिक-धर्म की बीमारी में स्त्री को आराम मिलता है।


2. तिल: काले तिल, त्रिकुटा और भारंगी सभी 3-3 ग्राम लेकर काढ़ा बना लें। इस काढ़े को गुड़ अथवा लाल शक्कर मिलाकर प्रतिदिन सुबह-शाम पीने से बंद मासिक धर्म खुल जाता है। 

मासिक धर्म (माहवारी) रुकावट में तिल के पंचांग (जड़, तना, पत्ती, फल और फूल) का काढ़ा 40 से 80 मिलीलीटर या तिल का चूर्ण 10 से 20 ग्राम रोजाना 2-3 बार सेवन करने से आर्तव (माहवारी) जारी हो जाता है। गर्भाशय पर इसका संकोचन प्रभाव होता है। 

3. कमल: कमल की जड़ को पीसकर खाने से रजोधर्म (मासिक-धर्म) जारी हो जाता है।


4. गुड़हल: लाल गुड़हल के फूलों को पीसकर पानी के साथ सेवन करने से रजोधर्म (मासिक स्राव) होने लगता है।


5. जीरा: काला जीरा 20 ग्राम, एरण्ड का गूदा 100 ग्राम तथा सोंठ 10 ग्राम सभी को मिलाकर बारीक पीसकर रख लें तथा पीड़ित महिला के पेट के ऊपर सुहाता-सुहाता गरम लेप करें। इस प्रयोग को लगातार कई दिनों तक करते रहने से नलों (नलिकाओं) का दर्द मिट जाता है और रजोधर्म (मासिक स्राव) होने लगता है।


6. मालकांगनी:


मालकांगनी के पत्ते और विजयसार की लकड़ी दोनों को दूध में पीसकर-छानकर पीने से बंद हुआ मासिक-धर्म पुन: शुरू हो जाता है। 

मालकांगनी के पत्तों को पीसकर तथा घी में भूनकर महिलाओं को खिलाना चाहिए। इससे महिलाओं में बंद हुआ मासिक-धर्म पुन: शुरू हो जाता है। 


7. मूली: मूली के बीज, गाजर के बीज तथा मेथी के बीज इन्हें 50-50 ग्राम की मात्रा में लेकर कूट-पीस-छानकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को गर्म पानी पीने के साथ सेवन करने से रुका हुआ मासिक-धर्म खुल जाता है।


8. गाजर: केवल गाजर के बीजों को सिल पर पीसकर पानी में छानकर पीने से बंद हुआ मासिक-धर्म पुन: शुरू हो जाता है।


9. दन्तीमूल: दन्तीमूल, कटुतुम्बी के बीज, छोटी पीपल, मैनफल की जड़ तथा मुलहठी को बहुत ही बारीक पीसकर तथा थूहर के दूध के साथ बत्ती बनाकर योनि मार्ग में रखने से नष्टार्तव (मासिक धर्म का न होना) पुन: आरम्भ हो जाता है।


9. सोंठ: सोंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल और भारंगी को 10-10 ग्राम की मात्रा में लेकर घी में भुनी हुई हींग 10 ग्राम को कूट-छानकर रख लें। इसे लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग ताजे पानी अथवा गाय के दूध के साथ सुबह-शाम सेवन कराना चाहिए। इसे 4-5 सप्ताह तक निरन्तर प्रयोग करने से नष्टार्तव यानी मासिक धर्म का बंद हो जाने की बीमारी समाप्त हो जाती है।


10. भारंगी: भारंगी, सोंठ, काले तिल और घी इन्हें कूट-पीसकर मिला लें तथा इसे लगातार कुछ दिनों तक नियमित रूप से पीयें। इससे बंद हुआ मासिक धर्म पुन: शुरू हो जाता है।


11. गुड़: गुड़ के साथ काले तिलों का काढ़ा बनाकर, उसे ठंडा करके पीने से बहुत समय का रुका हुआ मासिकधर्म भी खुल जाता है।


12. अजमोद: अजमोद के फल का चूर्ण 1 से 4 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से मासिक स्राव जारी हो जाता है। नोट: इसे गर्भावती स्त्री को नहीं देना चाहिए।


13. कलौंजी (मंगरैला): कलौंजी (मंगरैला) आधा से 1 ग्राम प्रतिदिन 2-3 बार सेवन करने से माहवारी शुरू हो जाती है। गर्भवती महिलाओं को इसका सेवन नहीं कराना चाहिए।


14. सोया: सोया का काढ़ा 40 मिलीलीटर की मात्रा में गुड़ मिलाकर सुबह, दोपहर, शाम और रात को सोने सेवन करने से आर्तव ```माहवारी` शुरू हो जाती है। यदि मासिक आता हो लेकिन खुलकर न आता हो तो बांस के पत्तों के साथ सोया का काढ़ा तैयार करके पुराना गुड़ मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से मासिक स्राव खुलकर आता है।


15. ईश्वरमूल (रूद्रजटा): ईश्वर मूल (रूद्रजटा) के पंचांग का चूर्ण लगभग एक चौथाई ग्राम से दो ग्राम पीपलामूल और हींग के साथ पान में डालकर सुबह-शाम सेवन करने से माहवारी जारी हो जाती है। इसे गर्भास्था में नहीं देना चाहिए अन्यथा गर्भपात हो जाएगा।


16. लहसुन: लहसुन का रस 30 बूंद, रोज 2 बार दूध के साथ या लहसुन का काढ़ा 2 से 3 मिलीलीटर की मात्रा में घी के साथ सेवन करने से तिवभारी के कारण रुकी हुई माहवारी शुरू हो जाती है। नोट: इसे गर्भवती स्त्री को नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे गर्भपात हो सकता है।


17. गुग्गुल: माहवारी यदि किसी गर्भाशय के दोष (विकार) के कारण रुका हो तो गुग्गुल एक चौथाई ग्राम से एक ग्राम को एलुवा (मुसब्बर) और कसीस के साथ गोलियां बनाकर सुबह-शाम देने से मासिकस्राव जारी हो जाता है।


18. नागरमोथा: माहवारी यदि किसी गर्भाशय के दोष के कारण रुकी हो तो मोथा या नागरमोथा का कन्द का रस लगभग 3 से 6 ग्राम की मात्रा में रोज 2-3 बार पिलाने से माहवारी शुरू हो जाती है। नागरमोथा के ताजे फल का ही उपयोग करना चाहिए।


19. दांतरीसा: दांतरीसा का काढ़ा लौंग या दालचीनी के साथ बनाकर प्रतिदिन सुबह, दोपहर और शाम को लगभग 40 ग्राम की मात्रा के साथ सेवन करने से बंद हुई माहवारी पुन: जारी हो जाती है।


20. फरहद: फरहद के पत्तों का रस 10 मिलीलीटर की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से तिवभारी के कारण रुकी हुई माहवारी पुन: शुरू हो जाती है।

पेशाब अपने आप आना

 पेशाब अपने आप आना


1. कुलिंजन: लगभग आधा ग्राम कुलिंजन के चूर्ण को शहद के साथ रोजाना सुबह और शाम लेने से अपने आप पेशाब आने का रोग ठीक हो जाता है।


2. सुगन्धबाला: अगर पेशाब अपने आप आने का रोग स्नायुतंत्र से सम्बंधित हो तो आधा ग्राम से एक ग्राम सुगन्धबाला चूर्ण जरा सी अफीम के साथ लेने से लाभ होता है।


3. कुश या दाम (डामी): कुश या दाम की जड़ को 3 से 6 ग्राम की मात्रा में पीसकर घोटकर सुबह-शाम पीने से मूत्राशय (वह स्थान जहां पेशाब एकत्रित होता हैं) के सारे रोग ठीक हो जाते हैं।


4. मुण्डी (गोरखमुण्डी): मुण्डी (गोरखमुण्डी) के पंचांग (जड़, तना, फल, फूल, पत्ती) का रस 10  से 20 मिलीलीटर की मात्रा में सुबह-शाम लेने से पूरे मूत्राशय (वह स्थान जहां पेशाब एकत्रित होता हैं) का शोधन हो जाता है और बार-बार पेशाब आने का रोग ठीक हो जाता है। इसके साथ गुरूच का काढ़ा देने से भी लाभदायक होता है।


5. सफेद सेमर: सफेद सेमर का गोंद जिसे हत्तिमान का गोंद भी कहा जाता है उसे 3 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम खाने से बार-बार पेशाब आने के रोग में पूरा लाभ होता है।


6. कुचला: लगभग एक चौथाई कुचला को सुबह-शाम लेने से बार-बार पेशाब आने का रोग दूर हो जाता है।


7. बबूल: बबूल की कच्ची फलियों को छाया में सुखा लें। फिर इसे घी में भूनकर, चूर्ण बनाकर समान मात्रा में मिलाकर रख लें। फिर सुबह और शाम बिना चीनी और मिश्री मिलाकर इसे 4 ग्राम की मात्रा में खाने से पेशाब अपने आप आने का रोग समाप्त हो जाता है।


8. छुहारा: बच्चों को 1 और बड़ो को 2 छुहारे 250 मिलीलीटर पानी में उबालकर रोजाना रात को खिलाने से और ऊपर से दूध पिलाने से बार-बार पेशाब आने का रोग समाप्त हो जाता है।


9. चाय: चाय पेशाब अधिक लाती है जहां पेशाब कराना ज्यादा जरूरी हो, चाय पीना लाभदायक होता है।


10. अनान्नास: पके हुए अनान्नास को काटकर उसमें कालीमिर्च के चूर्ण और चीनी को मिलाकर पेशाब के सोते समय आने की बीमारी में लाभ होता है।

हस्तमैथुन

 हस्तमैथुन


हस्तमैथुन ऐसी क्रिया है जिसमें रोगी अकेले में अपने ही हाथो से लिंग को घिसकर अपने वीर्य को निकालता रहता है। इसको करने से मानसिक और शारीरिक रोग पैदा हो जाते हैं। मानसिक रोगी दूसरों के सामने भी हस्तमैथुन करने से नहीं हिचकिचाता है। यह कार्य अविवाहित व्यक्ति ज्यादा करते है। यह कार्य स्त्रियां भी कर लेती है। अपनी योनि पर उंगुलियों से रगड़कर वे भी स्खलित कर लेती है यह भी हस्तमैथुन का ही रोग कहलाता है।


विभिन्न औषधियों से उपचार-


1. छोटा गोखरू: छोटा गोखरू और तिल को बराबर मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। रोजाना सुबह-शाम 4 से 8 ग्राम यह चूर्ण मिश्री मिले गाय के दूध के साथ खाने से हस्तमैथुन से होने वाले रोग दूर होते हैं। इसका सेवन करने से हस्तमैथुन से पैदा होने वाली नपुंसकता भी दूर हो जाती है।


2. कुचला: लगभग चौथाई ग्राम कुचला को सुबह और शाम लेने से हस्तमैथुन से पैदा होने वाली नपुंसकता में लाभ होता है।


3. काहू: कामवासना पर नियंत्रण रखने के लिये जंगली काहू के बीज का चूर्ण 1 से 3 ग्राम रोजाना 2 बार लेने से लाभ होता हैं।


4. विल्वपत्र (बेलपत्र): 10 से 20 मिलीलीटर विल्वपत्र का रस सुबह-शाम पीने से कामइच्छा काबू में होती है, जिससे हस्तमैथुन की ओर से मन हट जाता हैं।


5. धनिया: धनिया का काढ़ा अनुपान या सहपान के रूप में खाने से हस्तमैथुन के रोग में लाभ होता है।


6. गोखरू: गोखरू फल और तिल को बराबर मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को 3 से 6 ग्राम की मात्रा में बकरी के दूध के साथ खाने से हस्तमैथुन से होने वाले सारे रोग दूर हो जाते हैं।


7. आंवला: हस्तमैथुन से धातु (वीर्य) पतला हो गया हो तो सबसे पहले इस हस्तमैथुन की आदत छोड़ दें। आंवलों तथा हल्दी को समान मात्रा में पीसकर घी डालकर सेंके और भूने। सेंकने के बाद इसमें दोनों के वजन के बराबर पिसी हुई मिश्री मिला लें। एक चाय के चम्मच भरकर सुबह-शाम गर्म दूध से इसकी फंकी लेना लाभकारी रहता है।

माहवारी का अधिक आना

 माहवारी का अधिक आना


1. लोध्र: 10 ग्राम पिसी हुई लौध्र में खांड 10 ग्राम की मात्रा में मिलाकर रख लें। इसे 2-2 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम पानी से सेवन करने से माहवारी के अधिक आने की समस्या समाप्त हो जाती है।


2. धाय: धाय के बीज 20 ग्राम को पीसकर रख लें, फिर इसे 5-6 ग्राम सुबह-शाम दूध के साथ सेवन करने से माहवारी का अधिक आना बंद हो जाता है।


3. धनिया: सूखा धनिया 10 ग्राम को लगभग 200 मिलीलीटर पानी में उबालते हैं। जब यह एक चौथाई की मात्रा में रह जाए तो उसे छानकर खांड (चीनी) मिलाकर हल्के गर्म पानी के साथ सुबह के समय 3-4 बार पिलाने से माहवारी में आराम मिलता है। 


4. मेथी: 1 चम्मच दाना मेथी को एक गिलास दूध में डालकर इसे उबाल आने तक उबालें, फिर दूध ठंडा करके छान लें। मेथी खायें और दूध में स्वादानुसार पिसी मिश्री मिलाकर रोजाना 2 बार पीने से मासिक-धर्म में अधिक खून का आना और शरीर के किसी भी अंग से खून का बहना बंद हो जाता है।


5. ग्वारपाठा (घृतकुमारी): 10 ग्राम घृतकुमारी के गूदे पर आधा ग्राम पलाश का क्षार छिड़ककर दिन में 2 बार सेवन करने से मासिक-धर्म सही होने लगता है।


6. सुगन्धबाला: सुगन्धबाला का 1 से 3 ग्राम चूर्ण या 50 से 100 मिलीलीटर काढ़े को मासिक-धर्म के रोग में नियमित रूप से सेवन करें। यह निद्राकारक है तथा पुराने प्रमेह में भी लाभकारी होता है।


माहवारी (मासिक धर्म) न होने के कारण मासिक-धर्म (माहवारी) न होने के कई कारण होते हैं जो निम्नलिखित है-

प्रकृति के नियमानुसार 40-50 वर्ष की आयु की महिलाओं में हमेशा के लिए मासिक धर्म का आना बंद हो जाता है। महिलाओं के शरीर का खून का दौरा इस अवस्था में कम हो जाता है। इसलिए आर्तव (मासिक धर्म) नहीं आता है। गर्भाशय के छोटा होने से अथवा गर्भाशय के न होने के कारण, गर्भाशय में वायु की अधिकता होने, भग (योनि) की दोनों दीवारे जुड़ी होने से, भग (योनि) का मुंह बंद होने से, भग (योनि) का मुंह बहुत ही छोटा होने से, बीजकोष के न होने से तथा योनि छिद्र के न होने से मासिक-धर्म नहीं होता है। इन कारणों की वजह से न आने वाला मासिक-धर्म असाध्य होता है। परन्तु इनमें से योनि छिद्र काटकर आर्तव (मासिक स्राव) जारी किया जा सकता है जो स्त्रियां जन्म से बंध्या (बांझ) होती हैं उनका मासिक जारी नहीं कराया जा सकता है। 

अधिक मोटापे के कारण गर्भाशय में चोट लग जाने में, रज के कम बनने से, छोटी उम्र में ही विवाह हो जाने से, स्त्रियों को सोम रोग हो जाने पर, मासिक के दिनों में स्नान करने से तथा गर्भ गिर जाने से अथवा मिट्टी आदि रूक्ष पदार्थों के सेवन करने से, पीलिया, यक्ष्मा (टी.बी) या अन्य रोग के कारण क्षीण हो जाने पर तथा डिम्ब ग्रंथियों में चर्बी बढ़ जाने से माहवारी नहीं होती है। नियमित रूप से चिकित्सा करते रहने से इन रोगों से छुटकारा मिल जाता है और माहवारी आने लगती है। 

भोजन ठीक प्रकार हजम न होने से, अधिक परिश्रम व चिंतित रहने से, ठंडी चीजों के खाने से, शारीरिक कमजोरी होने के कारण, अधिक मैथुन करने से दिन में सोने और रात्रि को जागने के कारण, विरुद्धाहार करने से, अधिक गर्म वस्तुओं के सेवन करने से भी मासिक में रुकावट हो जाती है। शुद्ध हवा व धूप के न मिलने से भी मासिक स्राव में रुकावट हो जाती है। 

गर्भवती हो जाने के बाद भी मासिक नहीं होता है। तथा गोद के छोटे बच्चे को दूध पिलाते रहने की अवस्था में भी प्राय: मासिक नहीं होता है। इस समय मासिक स्वभावत: प्राकृतिक रूप से नहीं होता है। ऐसी स्थिति में चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती है। हां बच्चों के बड़े हो जाने पर भी यदि मासिक-धर्म न आता हो तो इसकी चिकित्सा अवश्य ही करानी चाहिए। 

विभिन्न औषधियों से उपचार-


1. मालकांगनी: मालकांगनी के बीज 3 ग्राम की मात्रा में लेकर गर्म दूध के साथ सेवन करने से अधिक दिनों का रुका हुआ मासिकस्राव भी जारी हो जाता है।


2. तिल: काले तिल 10 ग्राम की मात्रा में 500 मिलीलीटर पानी के साथ कलईदार बर्तन में पकायें। जब यह लगभग 50 मिलीलीटर की मात्रा में बचे तो इसमें पुराना गुड़ मिलाकर मासिक होने से 5 दिन पहले सुबह के समय पीयें इससे मासिक धर्म शुरू हो जाएगा। परन्तु ध्यान रहें कि मासिक धर्म आ जाने के बाद इसका सेवन बंद कर देना चाहिए।


3. सफेद और लाल चन्दन: सफेद और लाल चन्दन का काढ़ा बनाकर पीने से दुर्गन्धित व पीप वाला मासिक स्राव भी बंद हो जाता है।


4. सुहागा: सुहागा 10 ग्राम, हीरा कसीस 10 ग्राम, मुसब्बर 10 ग्राम तथा हींग 10 ग्राम को पानी के साथ पीसकर आधा ग्राम की गोली बनाकर 1-1 गोली सुबह और शाम को अजवायन के साथ सेवन करने से कुछ दिनों तक लगातार सेवन करने से मासिक धर्म ठीक समय पर आने लगता है।


5. गाजर: गाजर का पाक अथवा गाजर का हलुवा सेवन करने से भी मासिक-धर्म समय पर जारी हो जाता है।


6. सोंठ: काली जीरी, सोंठ, एलुवा, अण्डी की मींगी (बीज, गुठली) सभी की 3-3 ग्राम की मात्रा में लेकर अच्छी तरह पीसकर रख लें। फिर इसे गर्म करके पेडु व योनि (जननांग, गुप्तांग) में 4-5 दिन दिनों तक लगाने से मासिक-धर्म आना शुरू हो जाता है।


7. एलुआ: एलुआ लगभग 100 ग्राम, हीरा कसीस लगभग 75 ग्राम, दालचीनी 50 ग्राम, इलायची 50 ग्राम, गुलकन्द 20 ग्राम, सभी को कूट-पीसकर गुलकन्द में मिलाकर गोली बनाकर सेवन करें। इससे ऋतु का अधिक आना और कम या अनियमित रूप से आने की शिकायत दूर हो जाती है।


8. मजीठ: मजीठ, कलौंजी और मूर सभी को कूट-पीसकर ऊपर से गुनगुना दूध का सेवन 7 दिनों तक करने से मासिक धर्म नियतिम रूप से आने लगता है।


9. नारियल: नारियल खाने से मासिक धर्म खुलकर आता है।


10. मटर: मटर का अधिक मात्रा में सेवन मासिक-धर्म अवरोध (माहवारी रुकावट) को दूर करता है।


11. राई: मासिक धर्म में गड़बड़ी होने पर भोजन से पहले 2 ग्राम पिसी हुई राई भोजन के साथ नियमित रूप से प्रात: काल सेवन करने से लाभ होता है।


12. तुलसी: तुलसी की जड़ को छाया में सुखाकर पीसकर चौथाई पान में रखकर खाने से अनावश्यक रक्त-स्राव बंद हो जाता है।


13. नीम: मासिक-धर्म के दिनों में दर्द होकर, जांघों में हो तो नीम के पत्ता के 6 मिलीलीटर रस, अदरक का रस 12 मिलीलीटर को पानी में मिलाकर पिलाने से दर्द तुरंत आराम मिलता है।

गर्भाशय व योनि के रोग

 गर्भाशय व योनि के रोग 


1. नीम: नीम के पत्तों को पानी में उबाल-छानकर इससे योनि को धोने से योनि की खुजली नष्ट हो जाती है। इसे सुबह-शाम को सेवन करना चाहिए।


2. आंवला: आंवला का रस 20 मिलीलीटर मिश्री मिलाकर सुबह-शाम पीने से योनि और गर्भाशय की जलन ठीक हो जाती है।


3. तुम्बी: कडु़वी तुम्बी का रस 5 मिलीलीटर की मात्रा में लेकर लगभग 200 ग्राम दही में मिलाकर सुबह के समय प्रयोग करें। इससे गर्भाशय के मस्से ठीक हो जाते हैं।


4. लहसुन: लहसुन की 3-4 फली छीलकर भुनी हुई हींग के साथ सुबह कुछ दिनों तक प्रयोग करने से बच्चा होने के बाद गर्भाशय का जहरीला तरल पदार्थ बाहर निकल जाता है।


5. गुलाब: गुलाब का रस लगभग 10 मिलीलीटर और रोगन गुल 10 ग्राम को मिलाकर खिलाने से योनि की खुजली मिट जाती है।


6. राई:


गर्भाशय में कैंसर होने पर, सप्ताह में दो से तीन बार राई के गुनगुने पानी की पिचकारी द्वारा धोने से लाभ होता है। पच्चीस ग्राम राई को एक कप शीतल (ठंडे) पानी में भिगो लें, इसे मसलकर लुआब बनाकर फिर साढ़े सात सौ ग्राम गुनगुने पानी में मिला लें। 

गर्भाशय के अनेक दर्द, काफी तेज दर्द में, नाभि के नीचे या कमर पर राई के प्लास्टर का इस्तेमाल लगातार करना चाहिए। 

गर्भावस्था का भोजन 1. नारंगी: गर्भवती स्त्री को प्रतिदिन दो नारंगी दोपहर में पूरे गर्भकाल में खिलाते रहने से होने वाला शिशु बहुत सुन्दर होता है।


2. मौसमी: मौसमी के फल में कैल्शियम अधिक मात्रा में मिलता है। गर्भवती स्त्रियों और गर्भाशय के बच्चे को शक्ति प्रदान करने के लिए इसका रस पौष्टिक होता है।


3. नारियल: नारियल और मिश्री खाने से प्रसव में दर्द नहीं होता है तथा उत्पन्न संतान स्वस्थ होती है।


4. शहद: गर्भावस्था में महिलाओं के शरीर में रक्त की कमी आ जाती है। गर्भावस्था के समय रक्त बढ़ाने वाली चीजों का अधिक सेवन करना चाहिए। महिलाओं को दो चम्मच शहद प्रतिदिन सेवन करने से रक्त की कमी नहीं होती है। इससे शारीरिक शक्ति बढ़ती है और बच्चा मोटा और ताजा होता है। गर्भवती महिला को गर्भधारण के शुरू से ही या अन्तिम तीन महीनों में दूध और शहद पिलाने से बच्चा स्वस्थ और मोटा ताजा होता है।


5. गाजर: आधा गिलास गाजर का रस, आधा गिलास दूध व स्वादानुसार शहद मिलाकर प्रतिदिन पीने से गर्भावस्था की कमजोरी दूर होती है।


गर्भावस्था से पूर्व सावधानी 1. मैथुन हेतु विषम आसनों का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे प्रजननांग चोटिल, क्षतिग्रस्त और सूजनयुक्त हो सकता है।


2. उस प्रकार के व्यायाम भी नहीं करने चाहिए जो शक्ति से बाहर हो।


3. मल-मूत्र, प्यास और भूख के वेगों को (इच्छाओं को) नहीं रोकना चाहिए।


4. अधिक शीतल, गर्म, तीक्ष्ण, गरिष्ठ आहार के सेवन से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। गर्भधारण की इच्छुक नारियों को उसे अपथ्य समझना चाहिए।


5. अधिक भोजन तथा अल्प भोजन भी स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं होता है।


6. दाम्पत्य जीवन को प्रसन्नता से तथा उद्वेग-रहित रूप से चलाना चाहिए। शोक, क्रोध चिंता आदि नहीं करनी चाहिए। अधिक रोना, हंसना, कूढ़ना, ईर्ष्या, द्वेषादि रखना भी स्वयं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है और ऐसे भी कारण जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के प्रतिकूल हो उन्हें त्याग देना ही बेहतर होता है।

यौन शक्ति का कम होना

 यौन शक्ति का कम होना


सेक्स और वीर्य का आपस में बहुत ही गहरा संबंध है। हर व्यक्ति चाहता है कि स्त्री के साथ संभोग करते समय वीर्यस्खलन देर से हो। इसके लिए वह हमेशा ही नई-नई चीजें ढूंढता रहता है। अपनी यौनशक्ति को बढ़ाने के लिए वह हर समय कोशिश करता रहता है इसके साथ ही वह अपनी संभोग शक्ति बढ़ाने के लिए भी प्रयत्नशील रहता है। संभोगशक्ति को बढ़ाने के लिए वीर्य को शुद्ध, गाढ़ा, और शुक्राणुओं की वृद्धि, स्तंभन शक्ति बढ़ाने के लिए आयुर्वेद के विद्वानों ने बाजीकरण नाम के अलग विभाग की रचना की है। उनके हिसाब से वीर्य को बढ़ाने के लिए, वीर्य से संबंधित दोषों को दूर करने के लिए, संभोग शक्ति और स्तंभन शक्ति बढ़ाने के लिए बाजीकरण औषधि का सेवन करना बहुत जरूरी है। बाजीकरण को वृष्य भी कहते हैं। इसलिए मनुष्य के शरीर में जिन खाद्य पदार्थों, यौगिक क्रियाओं या औषधियों के द्वारा शक्ति प्राप्त होती है उसे बाजीकरण के नाम से जाना जाता है।


चिकित्सा :


1. असगंध: 25-25 ग्राम असगंध, ब्रह्मदण्डी और निर्गुण्डी को एकसाथ मिलाकर अच्छी तरह से पीसकर और छानकर इसमें 75 ग्राम खांड मिलाकर रख लें। इसे 5-5 ग्राम की मात्रा में सुबह और शाम दूध के साथ सेवन करने से बाजीकरण के रोग में (यौन शक्ति का कम होना) लाभ मिलता है।


2. इन्द्रजौ: 50-50 ग्राम इन्द्रजौ, तारा मीरा के बीज और उटंगन के बीजों को एकसाथ कूटकर और छानकर 5-5 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम शहद में मिलाकर चाटने से बाजीकरण का रोग (यौन शक्ति का कम होना) दूर हो जाता है।


3. बिदारीकंद: 100 ग्राम बिदारीकंद को कूटकर और छानकर इसमें 100 ग्राम खांड मिलाकर 5-5 ग्राम की मात्रा में घी में डालकर सुबह-शाम सेवन करने के बाद ऊपर से खांड मिला दूध पीने से यौनशक्ति के कम होने का रोग समाप्त हो जाता है।


4. सफेद मूसली: 50 ग्राम सफेद मूसली, 100 ग्राम तालमखाना और 150 ग्राम देसी गोखरू को एकसाथ कूटकर और छानकर रख लें। फिर इसमें 300 ग्राम खांड मिलाकर 5-5 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम हल्के गुनगुने पानी से लेना बाजीकरण (यौन शक्ति का कम होना) रोग में लाभ होता है।


5. उड़द : 


25 ग्राम उड़द की दाल की पिट्ठी या सिंघाढ़े के आटे को देसी घी में भूनकर लगभग 400 मिलीलीटर दूध में मिलाकर पकायें। पकने के बाद गाढ़ा होने पर कम गर्म में दूध में चीनी मिलाकर सुबह सेवन करने से बाजीकरण के रोग में आराम होता है। 

उड़द की दाल का एक लड्डू रोजाना खाकर उसके बाद दूध पीने से वीर्य बढ़कर धातु पुष्ट होता है संभोग करने की शक्ति बढ़ती है। 


6. काले तिल : काले तिल और गोखरू को 20-20 ग्राम की मात्रा में पीसकर 400 मिलीलीटर दूध में चीनी डालकर अच्छी तरह से पकायें। गाढ़ा होने पर गुनगुने रूप में बाजीकरण से पीड़ित रोगी को सुबह के समय खिलाने से लाभ होता हैं।


7. खजूर: 25 से 50 ग्राम खजूर या पिण्डखजूर को 100 से 250 मिलीलीटर दूध के साथ दिन में 3 बार लेने से संभोगशक्ति बढ़ जाती है।


8. भांग:


एक चौथाई से आधा ग्राम भांग के पत्तों का चूर्ण 4 से 6 ग्राम शहद और 100-250 मिलीलीटर दूध के साथ लेने से संभोगशक्ति बढ़ जाती है। 

6 ग्राम भांग, 6 ग्राम अफीम, 10 ग्राम, छुहारे, 6 ग्राम पोस्तदाना, 10 ग्राम बादाम गिरी, 10 ग्राम मोठ की जड़ और 6 ग्राम धतूरे के बीजों को एकसाथ बारीक पीसकर 3 ग्राम की मात्रा में लेने से बाजीकरण रोग में लाभ मिलता है। 


9. जातीफल: जातीफल का चूर्ण 1 से 3 ग्राम की मात्रा में 100 से 250 मिलीलीटर दूध के साथ वीर्य स्खलन की स्थिति में दिन में 2 बार  सेवन करने से लाभ होता है। 


10. जावित्री:


1 से 3 ग्राम जावित्री के चूर्ण को 100 से 250 मिलीलीटर दूध के साथ दिन में 2 बार लेने से वीर्य का जल्दी निकलने का रोग दूर हो जाता है। 

जावित्री, सफेद कनेर की छाल, समुद्रशोष, अफीम, खुरासानी अजवायन, जायफल, पीपल, मिश्री को बराबर मात्रा में लेकर बारीक पीसकर गुड़ के साथ 4-4 ग्राम की गोलियां बनाकर रख लें। इसमें से एक गोली रात को सोते समय खाने से संभोगशक्ति बढ़ जाती है। 


11. नमक: 1 से 3 ग्राम नमक के चूर्ण को 100 से 250 मिलीलीटर दूध के साथ दिन में 2 बार देने से वीर्य स्खलन नहीं होता है।


12. जायफल: 3 ग्राम जायफल, 6 ग्राम रूमी मस्तगी, 6 ग्राम लौंग तथा 6 ग्राम इलायची को पीसकर शहद में मिलाकर बेर के बराबर गोलियां बना लें। यह 1 गोली रात को सोते समय खाना बाजीकरण रोग में लाभदायक होता है।

गुप्तांग (योनिरोग)

 गुप्तांग (योनिरोग)


1. आंवला: जिस स्त्री के गुप्तांग (योनि) में जलन और खुजली हो, उसे आंवले के रस को शहद के साथ सेवन करने से लाभ मिलता है।


2. कुमुदनी: कुमुदनी की जड़ को चावल के धोवन के साथ खिलाने से योनि रोग नष्ट हो जाते हैं।


3. नीम: नीम के पत्तों को उबालकर उसमें सेंधानमक मिलाकर गुप्तांग (योनि) में पिचकारी देने से योनि रोग मिट जाते हैं।


4. फिटकरी: फिटकरी अथवा त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आंवला) को पानी में डालकर उबालें तथा उसे छानकर गुप्तांग में पिचकारी देने से योनि रोग मिट जाते हैं।


5. बच: बच, अडू़सा, कटु, परवल के पत्ते, प्रियंगु के फूल, नीम की छाल इनके महीन चूर्ण की पोटली बना लें और गुप्तांग में रखें अथवा जल भांगरा के रस को साफ रूई में भिगोकर रखने से गुप्तांग की जलन, खुजली और गुप्तांग से निकलने वाला दूषित मवाद का जाना रुक जाता है।

मासिक-धर्म में दर्द

 मासिक-धर्म में दर्द


1. तारपीन: कमर तक गुनगुने पानी में बैठे और पेडू (नाभि) पर सेक करने के बाद तारपीन के तेल की मालिश करने से मासिक-धर्म की पीड़ा नष्ट हो जाती है।


2. बबूल: लगभग 250 ग्राम बबूल की छाल को जौकूट यानी पीसकर 2 लीटर पानी में पकाकर काढ़ा बना लें। जब यह 500 मिलीलीटर की मात्रा में रह जाए तो योनि में पिचकारी देने से मासिक-धर्म जारी हो जाता है और उसकी पीड़ा भी शान्त हो जाती है।


3. कालीमिर्च: कालीमिर्च एक ग्राम, रीठे का चूर्ण 3 ग्राम दोनों को कूटकर जल के साथ सेवन करने से आर्तव (माहवारी) की पीड़ा (दर्द) नष्ट हो जाती है।


4. अजवायन: अजवायन, पोदीना, इलायची व सौंफ इन चारों का रस समान मात्रा में लेकर लगभग 50 ग्राम की मात्रा में मासिकस्राव के समय पीने से आर्तव (माहवारी) की पीड़ा नष्ट हो जाती है।


5. रीठा: मासिकस्राव के बाद वायु का प्रकोप होने से स्त्रियों का मस्तिष्क शून्य हो जाता है। आंखों के आगे अंधकार छा जाता है। दांतों की बत्तीसी भिड़ जाती है। इस समय रीठे को पानी में घिसकर झाग (फेन) बनाकर आंखों में अंजन लगाने से तुरन्त वायु का असर दूर होकर स्त्री स्वस्थ हो जाती है।


6. मूली:


जब मासिक-धर्म खुलकर न आए तब ऐसी दशा में मूली के बीजों का चूर्ण 4-4 ग्राम की मात्रा में सुबह, दोपहर और शाम सेवन करें। यदि मासिक धर्म बंद हो गया हो, कई महीनों से नहीं आया हो तो मूली, सोया, मेथी और गाजर के बीजों को समान मात्रा में लेकर 4-4 ग्राम की मात्रा में खाकर ऊपर से ताजा पानी पीने से बंद मासिक धर्म खुलकर आता है। मासिक धर्म की कमी के कारण यदि मुंहासे निकलते हों तो प्रात:समय पत्तों सहित एक मूली रोजाना खाएं। 

मूली रज (मासिक-धर्म) और वीर्य पुष्ट करती है। श्वेत प्रदर के रोग को दूर करने में भी यह सहायक है। 


7. अदरक: मासिक-धर्म के कष्ट में सोंठ और पुराने गुड़ का काढ़ा बनाकर रोगी को पिलाना लाभकारी होता है। ध्यान रहे कि ठण्डे पानी और खट्टी चीजों से परहेज रखें।


8. मेथी: रजोनिवृति के रोग में मेथी को खाने से लाभ मिलता है।


9. गुड़हल: 6-12 ग्राम गुड़हल के फलों का चूर्ण कांजी के साथ दिन में 2 बार सेवन करने से मासिक-धर्म की परेशानी दूर हो जाती है।


10. केसर: लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग केसर को दूध में मिलाकर दिन में 2 से 3 बार पीने से मासिक-धर्म के समय दर्द में आराम मिलता है।


11. भांग: मासिक-धर्म के आने से पहले पेट को शुद्ध कर देना चाहिए, फिर गांजा को दिन में 3 बार देते रहने पर माहवारी (मासिक-धर्म) के समय दर्द कम हो जाता है और मासिक-धर्म भी नियमित होने लगता है।